डॉ. गोपालदास नायक, खंडवा
दीपावली आते ही पूरे देश में सफाई का महायज्ञ शुरू हो जाता है। हर घर में झाड़ू, पोंछा, बाल्टी, डस्टर और डिटर्जेंट ऐसे सक्रिय हो जाते हैं जैसे किसी महत्वपूर्ण त्योहार की सेना तैनात कर दी गई हो। फर्क बस इतना कि कुछ घरों में झाड़ू सच में ज़मीन पर चलती है, और कुछ में बस याद दिलाई जाती है कि झाड़ू कहाँ रखी है।
दीपावली की सफाई का असली अर्थ हर किसी के लिए अलग होता है। किसी के लिए यह घर का कोना चमकाना है, तो किसी के लिए रिश्तों की धूल झाड़ना। पर सच कहा जाए तो यह त्योहार हमें हर साल याद दिलाता है कि उजाले से पहले थोड़ी मेहनत जरूरी है। घर-घर में सफाई का माहौल किसी छोटी संसद से कम नहीं होता। पत्नी आदेश देती है कि इस बार अलमारी के ऊपर का कबाड़ निकालना ही होगा। पति सोचता है कि वह कबाड़ तो पिछले साल भी वहीं था, और अगर उसने अब तक किसी को परेशान नहीं किया, तो अगले साल भी नहीं करेगा।
लेकिन दीपावली के लोकतंत्र में फैसले बहुमत से होते हैं — और बहुमत हमेशा पत्नी का ही रहता है।
गली-मोहल्लों में सफाई का रंग अलग होता है। बच्चे झाड़ू लेकर छोटे-छोटे योद्धा बन जाते हैं, बुजुर्ग छतों से पुराने अख़बार फेंकते हैं और कुछ लोग कूड़े को ऐसे देखते हैं जैसे पुराने जमाने की यादें हों। हर कोई चाहता है कि उसका घर सबसे साफ दिखे, और अगर किसी का घर पहले से ही साफ हो, तो बाकी सब उसे संदिग्ध नज़रों से देखने लगते हैं — ये इतना चमकता कैसे है। दफ्तरों में भी सफाई का उत्सव होता है। टेबल पर रखी पुरानी फाइलों को थोड़ा सलीके से रख दिया जाता है, और डस्टर से साफ करते हुए सबको लगता है कि काम में नई ऊर्जा आ गई है। कर्मचारी एक-दूसरे को देखते हुए कहते हैं कि अब तो वातावरण ही पवित्र लगने लगा है।
दीपावली का असली जादू रात में दिखाई देता है। जब घर जगमगाने लगते हैं, तो मन को भी लगता है कि सारी थकान मिट गई। बाहर रोशनी होती है और भीतर संतोष कि सब कुछ व्यवस्थित हो गया। पर सबसे सुंदर दृश्य तब होता है जब सफाई के बाद परिवार एक साथ बैठता है — चाय की चुस्कियाँ, मिठाइयों की खुशबू और दीयों की रोशनी। उस पल में लगता है कि असली सफाई तो मन की थी, जो अब उजाले में नहा गई है।
दीपावली की सफाई सिर्फ झाड़ू या पोछे तक सीमित नहीं होती। यह हमें याद दिलाती है कि जिस तरह हम घर का कोना साफ करते हैं, वैसे ही हमें मन के कोने में भी जमी पुरानी शिकायतों और नकारात्मक भावनाओं को हटाना चाहिए। त्योहार के बाद जब दीये धीरे-धीरे बुझते हैं, तो हवा में मिठाई की महक और संतोष का सुकून रह जाता है। झाड़ू अपने कोने में रखी मुस्कराती है मानो कह रही हो — अब अगले साल फिर मिलेंगे, जब हम सब फिर से उजाले का स्वागत करने की तैयारी करेंगे। सफाई सिर्फ परंपरा नहीं, एक सकारात्मक भावना है। यह याद दिलाती है कि उजाला तभी सुंदर लगता है जब अंधकार को हटाने का प्रयास किया जाए — घर में भी, मन में भी, और जीवन में भी।

