मेरे बेटे, सागर की छाती के पार,
तुम्हारी उम्मीद, एक परीक्षण, एक दृष्टि अपार।
अब तक तुम उड़ चुके हो, अनुभव के पंख फैलाते हुए,
एक प्रतिध्वनि, एक परिचित मुस्कान छोड़ते हुए।
खाली कुर्सी, घर में पसरे सन्नाटे की छद्म निराशा,
एक निरंतर फुसफुसाहट, पुकार का उत्तर देती आशा।
लहराते-उछलते नीले सागर के पार,
मेरा दिल याद करता है, तुम्हें आते-जाते करता था दुलार।
लेकिन ओह, गर्व है, दिल में है एक आग,
तुम्हें चढ़ते हुए देखने, लक्ष्य तक पहुँचने का है अनुराग।
भले ही हमारे बीच हजारों मीलों की हो दूरी,
आपका चमकता नाम, गर्व की एक उत्कृष्ट कृति है पूरी।
हर दिन, मैं भेजता हूँ एक फुसफुसाती हुई प्रार्थना,
ताकि तुम्हें मार्गदर्शन की शक्ति मिले, जब तक हो रहा यात्रा से सामना।
और जान लो, मेरे बेटे, भले ही दूरी हो या पहर,
मेरा प्यार तुम्हें घेरे रहता है निरंतर, जैसे हो एक बहती हुई लहर।
– डॉ. दिलीप वागेला, इंदौर