हरनाम सिंह (विचारक, लेखक)
कांग्रेस संगठन द्वारा पार्टी को जमीनी स्तर पर मजबूत करने तथा आगामी चुनाव के लिए कार्यकर्ताओं को तैयार करने के लक्ष्य को लेकर चलाया गया संगठन सृजन अभियान संपन्न हो चुका है। अभियान के तहत भेजे गए पर्यवेक्षकों की रिपोर्ट पर पार्टी का उच्च स्तरीय नेतृत्व निर्णय लेगा। जिन हाथों में पार्टी की बागडोर सौंप जाएगी उनके नाम घोषित होंगे। पार्टी में जिला और ब्लॉक स्तर पर नेतृत्व के चुनाव की यह प्रक्रिया कितनी विश्वसनीय होगी ? सक्षम लोगों द्वारा पर्यवेक्षकों और उनकी रिपोर्ट को प्रभावित करने के प्रयास होंगे ? ये सवाल तो हैं ही। इन सब के ऊपर बिना वैचारिक प्रतिबद्धता के उभरता नया नेतृत्व आने वाले समय की चुनौतियों से निपटने में सक्षम होगा ? यह तो पूछा ही जाएगा।
वर्षों से पार्टी संगठन में नेतृत्व द्वारा चुनाव के नाम पर मनोनयन होता रहा है। कांग्रेस संगठन पर सदैव गुटबाजी का आरोप लगता है। क्या चुनाव की यह वर्तमान प्रक्रिया गुटबाजी को समाप्त कर देगी ? अमूमन कार्यकर्ता अपने निजी संबंधों और चुनावी टिकट दिलवाने की क्षमता रखने वाले नेताओं के इर्द-गिर्द जमा हो जाता है। यही गुट बनाने का प्रथम चरण माना जा सकता है। निजी स्वार्थ आधारित कांग्रेस संगठन की स्थिति तो यह है रही है कि, पद अथवा टिकट न पाने वाले चुनाव में अपने ही दल के अधिकृत उम्मीदवार को पराजित करवाने में कोई कसर नहीं छोड़ते। भारतीय जनता पार्टी के पास ऐसी पार्टी विरोधी गतिविधियों को रोकने के लिए आरएसएस जैसा प्रतिबद्ध संगठन है। वहीं इस मामले में कांग्रेस संगठन में अराजकता है। लक्ष्मण सिंह इसका उदाहरण हैं, जो वर्षों तक पार्टी में रहकर सार्वजनिक रूप से पार्टी के ही खिलाफ बोलते रहे।
कांग्रेस का यह वर्तमान अभियान मध्य प्रदेश, हरियाणा जैसे राज्यों में विधानसभा चुनाव की तैयारी है जहां पार्टी अपनी खोई हुई जमीन वापस हासिल करना चाहती है।
नेतृत्व चयन की पात्रता और वैचारिक आधार
अभियान अंतर्गत पर्यवेक्षकों ने पार्टी कार्यकर्ताओं के मन को टटोला है, और पूछा ही होगा कि किसे ब्लॉक अथवा जिले की जिम्मेदारी सौंपी जाए ? पूरी संभावना है कि पार्टी सदस्यों ने अपनी वैयक्तिक निष्ठा के आधार पर नेता का नाम लिया होगा,न कि चुने जाने वाले नेता की वैचारिक प्रतिबद्धता को आधार बनाया होगा। वर्षों से कांग्रेस में वैचारिक आधार पर चिंतन की परंपरा नहीं रही है।
कांग्रेस की विचारधारा लोकतंत्र, धर्मनिरपेक्षता, समाजवाद, न्याय और समानता में विश्वास की रही है। लेकिन शनै: शनै: कांग्रेस इन मूल्यों से दूर होती चली गई है। जिस धर्मनिरपेक्षता के लिए राहुल गांधी पूरे देश की अदालतों में अभियुक्त बनकर पेशियां भुगत रहे हैं इसी मुद्दे पर ब्लॉक से लेकर जिलों और प्रांतीय स्तर पर कांग्रेस नेता चुप्पी साधे हुए हैं। वे भाजपा के जाल में फंसकर खुद को हिंदू हितों से जोड़ते हुए अपने कार्यालयों में धार्मिक गतिविधियां करवाते हैं। हिंदू राष्ट्र की मांग करने वाले बाबाओं की कथाओं का आयोजन करवाते हैं। संगठन के नेताओं में साहस ही नहीं है कि वे कह सकें कि धर्म को राजनीति से अलग रखना जरूरी है।
समाजवाद की बात करने की पात्रता तो कांग्रेस उदारीकरण की नीतियों को स्वीकार करने के बाद ही खो चुकी है। ऐसी ही स्थिति समानता और न्याय की भी है। भाजपा शासित राज्यों में बुलडोजर का कहर चला, कहीं भी प्रतिरोध के लिए कांग्रेस सामने नहीं आई। दलितों की बारातें रोकी गई उन्हें मंदिर प्रवेश नहीं करने दिया गया, ऐसी घटनाओं की भी कांग्रेस ने अनदेखी की अल्पसंख्यक समुदाय, दलित वर्ग परंपरा से कांग्रेस का समर्थक रहा है। अब वह उसके साथ नहीं है।
कांग्रेस के अनेक अनुशांगी संगठन है जिनके नाम भी लोग भूल चुके हैं। युवा कांग्रेस, महिला कांग्रेस, इंटक, एनएसयूआई कहां है ? इन संगठनों के नेता क्या कर रहे हैं ? ये संगठन सक्रिय क्यों नहीं है ? किसी के पास जवाब नहीं है।
महात्मा गांधी, नेहरू, पटेल, अंबेडकर की विचारधारा से हटकर संगठन का पुनर्गठन लक्ष्य प्राप्ति कर सकेगा ? यदि संगठन केवल चुनाव जीतने की क्षमता रखने वाले उम्मीदवारों अथवा प्रभावशाली वर्गों को साथ लेकर जन समर्थन हासिल करने के बारे में सोचेगा तो सफलता मिलना मुश्किल है। याद रखा जाना चाहिए कि वैचारिक प्रतिबद्धता, जन संघर्षों से जुड़ाव, त्याग की भावना से ही संगठन मजबूत बनता है, मात्र पद की आकांक्षा से नहीं। भारतीय राजनीति में विचार शून्यता का परिणाम दलों के पतन के रूप में देखा गया है। बिना वैचारिक स्पष्टता के संगठन सृजन एक प्रयास तो हो सकता है, इसे राजनीतिक पुनरुद्धार के रूप में नहीं देखा जा सकता।