Editorial News – मातृभाषा संस्कृति की परिचायक 

By
sadbhawnapaati
"दैनिक सदभावना पाती" (Dainik Sadbhawna Paati) (भारत सरकार के समाचार पत्रों के पंजीयक – RNI में पंजीकृत, Reg. No. 2013/54381) "दैनिक सदभावना पाती" सिर्फ एक समाचार...
6 Min Read

(लेखक- भूपेंद्र कुमार सुल्लेरे)

किसी भी राष्ट्र,समाज की स्थानीय भाषा (मातृभाषा) उस समाज के संस्कृति की परिचायक ही नहीं बल्कि आर्थिक संपन्नता का आधार भी होती है। मातृभाषा का नष्ट होना राष्ट्र की प्रासंगिकता का नष्ट होना होता है। मातृभाषा को जब अर्थव्यवस्था की दृष्टि से समझने की कोशिश करते हैं तो यह अधिक प्रासंगिक और समय सापेक्ष मालूम पड़ता है। किसी भी समाज की संस्कृति समाज के खानपान और पहनावे से परिभाषित होती है, यही खानपान और पहनावा जब अर्थव्यवस्था का रूप ले लेता है तो यह ज्यादा महत्वपूर्ण हो जाता है।

मातृभाषा हमें राष्ट्रीयता से जोड़ती है और देश प्रेम की भावना उत्प्रेरित भी करती है। मातृभाषा ही किसी भी व्यक्ति के शब्द और संप्रेषण कौशल की उद्गम होती है। एक कुशल संप्रेषक अपनी मातृभाषा के प्रति उतना ही संवेदनशील होगा जितना विषय-वस्तु के प्रति। मातृभाषा व्यक्ति के संस्कारों की परिचायक है। मातृभाषा से इतर राष्ट्र के संस्कृति की संकल्पना अपूर्ण है। मातृभाषा मानव की चेतना के साथ-साथ लोकचेतना और मानवता के विकास का भी अभिलेखागार होती है।

शब्दों के अस्मिता की पड़ताल के दौरान लोक के अभिलेखागार को देखा जा सकता है। कबीर ने लिखा ‘चलती चक्की देख कर, दिया कबीरा रोए, दो पाटन के बीच में, साबुत बचा न कोए’; यहां कबीर का यह दोहा अभिलेखागार है उस लोक का जहां चक्की का अस्तित्व था। अर्थात अब घरों में चक्की भले न मिले लेकिन उसका अनुभव भाषा के माध्यम से मिल जाएगा। भाषा ही हमें बता रही होती है कि कभी हमारे घरों में चक्की हुआ करती थी जिससे अनाज पिसा जाता था।
हम लोग अपनी प्रकृति से सीखते गए, उसको अभिव्यक्ति करते गए, उसको संप्रेषित करते गए क्योंकि हमको पता था कि अपने आने वाली पीढ़ियों को अपने अनुभव देना आवश्यक है। हम द्वार पर पानी दवारते हैं, दवारना शब्द को जायसी अपनी रचना में इस्तेमाल करते हुए ‘दवंगरा’ कहते हैं। पहली वर्षा को भी ‘दवंगरा’ कहा जाता है। इस प्रकार यह सब उस समय की लोक चेतना को प्रदर्शित करता है।

आज डिफेंस और डिजास्टर के समझ को लेकर जनजातियों की प्रासंगिकता उनकी मातृभाषा के कारण ही है। अंडमान निकोबार के जारवा जनजाति की अपनी डिजास्टर संचार व्यवस्था रही होगी क्योंकि सुनामी तो हजार सालों में एक बार आती होगी लेकिन उनकी अपनी मातृभाषा के कारण संचार व्यवस्था संरक्षित रही। यहां अगर उनकी मातृभाषा बदल दी गई होती तो उनका ज्ञान भी मिट गया होता। यही कारण है कि डिजास्टर मैनेजमेंट का ‘लाइफ फ्लेम वन 2016’ स्थानीय ज्ञान के महत्व की बात करता है, जो स्थानीय भाषा से ही संभव है।

विचार कीजिए कि अगर अमेरिका गया भारतवासी अपने किचन में अपनी भाषा प्रयोग में लाता तो उसका पोहा भी प्रयोग में आता है और जब पोहा प्रयोग में आता तो उसको बनाने वाले कारीगर महाराष्ट्र और मध्य प्रदेश से बुलाते जाते, उन्हें रोजगार मिलता, रोजगार मिलने से वह संपन्न होते और कारीगर संपन्न होते तो देश और समाज भी संपन्न होता।
भाषा का जटिल और आसान होना उसके प्रयोग पर निर्भर करता है। जिन घरों में माता जी और पिता जी के स्थान पर मॉम और डैड जैसे शब्द प्रयोग हो रहे हैं वहां माताजी और पिताजी ज्यादा कठिन प्रतीत होने लगता है। यह भाषा के प्रयोग और परिणाम का स्पष्ट संकेत है। भारतेंदु हरिश्चंद्र ने लिखा है-‘निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल, बिन निज भाषा ज्ञान के, मिटन न हिय के सूल’।

अर्थात मातृभाषा के बिना किसी भी प्रकार की उन्नति संभव नहीं है। भारतेंदु जब यह कविता लिख रहे हैं तो वह सिर्फ कवि नहीं बल्कि नवजागरण के चिंतक भी हैं। नवजागरण मतलब समाज को नए तरीके से जगाने की प्रक्रिया। भारतेंदु उस समय के भारत को जगाने का प्रयास कर रहे थे, जो सोया हुआ था। देश को जगाने की चिंता में उनको ‘निज भाषा की’, मातृभाषा की चिंता हो रही थी क्योंकि मातृभाषा ही उनकी अस्मिता है, उनके पूर्वजों का अनुभव है। इसलिए राष्ट्र का निर्माण बिना मातृभाषा के संभव नहीं हो सकता।

भारतीय नवजागरण की चिंता में भाषा की चिंता पहली चिंता थी। यह चिंता केवल भारतेंदु की नहीं थी बल्कि राजा राममोहन राय, महात्मा गांधी, तिलक और दयानंद सरस्वती की भी थी। दयानंद सरस्वती के सत्यार्थ प्रकाश का 10वां नियम ही ‘हिंदी भाषा को बढ़ावा दिया जाए’ पर आधारित है। जिस भी देश में नवजागरण का आह्वान किया गया है उस देश में भाषा के संरक्षण की बात कही गई है। बिना मातृभाषा के आप अपने अनुभव को, अपनी अस्मिता को सुरक्षित नहीं कर सकते।

अतः मातृभाषा के महत्व को इस रूप में समझ सकते हैं कि अगर हमको पालने वाली, ‘माँ’ होती है; तो हमारी भाषा भी हमारी माँ है। हमको पालने का कार्य हमारी मातृभाषा करती है इसलिए इसे ‘मां’ और ‘मातृभूमि’ के बराबर दर्जा दिया गया है।
Share This Article
Follow:
"दैनिक सदभावना पाती" (Dainik Sadbhawna Paati) (भारत सरकार के समाचार पत्रों के पंजीयक – RNI में पंजीकृत, Reg. No. 2013/54381) "दैनिक सदभावना पाती" सिर्फ एक समाचार पत्र नहीं, बल्कि समाज की आवाज है। वर्ष 2013 से हम सत्य, निष्पक्षता और निर्भीक पत्रकारिता के सिद्धांतों पर चलते हुए प्रदेश, देश और अंतरराष्ट्रीय स्तर की महत्वपूर्ण खबरें आप तक पहुंचा रहे हैं। हम क्यों अलग हैं? बिना किसी दबाव या पूर्वाग्रह के, हम सत्य की खोज करके शासन-प्रशासन में व्याप्त गड़बड़ियों और भ्रष्टाचार को उजागर करते है, हर वर्ग की समस्याओं को सरकार और प्रशासन तक पहुंचाना, समाज में जागरूकता और सदभावना को बढ़ावा देना हमारा ध्येय है। हम "प्राणियों में सदभावना हो" के सिद्धांत पर चलते हुए, समाज में सच्चाई और जागरूकता का प्रकाश फैलाने के लिए संकल्पित हैं।