(लेखक- सनत कुमार जैन)
वैश्विक व्यापार संधि के बाद दुनिया के सभी देशों की आर्थिक विकास की दर कई गुना बढ़ा दी थी। 2003 के बाद भारतीय शेयर बाजार सहित दुनिया भर के शेयर बाजार कर्ज एवं विकास के अर्थ व्यवस्था की उड़ान भरकर हवा – हवाई हो गए थे। कारपोरेट जगत ने वित्तीय संस्थानों से बड़े पैमाने पर कर्ज लिये। हवा – हवाई योजनाएं बनाई। सरकारों ने भी शेयर बाजार के जरिये शेयरों की खरीद बिक्री में सट्टेबाजी के जरिए कारपोरेट जगत को आसानी से पूंजी उपलब्ध कराना शुरु कर दिया। शेयर बाजार में 10 रुपये अथवा 100 रुपये के शेयर मूल्य पर सैकड़ों रुपये के प्रीमियम के साथ कंपनियों में निवेश करने की नई व्यवस्था शुरु हुई। शेयर बाजार को जीडीपी से जोड़कर वास्तविक विकास की वृद्धि का स्थान शेयर बाजारों की सट्टेबाजी ने ले लिया। इसमें आर्थिक विकास कागजों पर बड़ी तेजी के साथ बढ़ा।
सरकारें भी शामिल :
आर्थिक विकास की होड़ में विभिन्न देशों की सरकारें, बैंक, वित्तीय संस्थान भी शामिल हो गए। म्यचुअल फंड पेंशन फंड , प्रोबिडेंट फंड, इक्वटी फंड इत्यादि की पूंजी भी शेयर बाजार के जरिये कारपोरेट जगत को आसानी से उपलब्ध होने लगी। एक दशक पूर्व वैश्विक स्तर पर गैर बैंकिंग वित्तीय संस्थानों का निवेश 30 ट्रिलियन डालर का था। जो वर्तमान में बढकर 63 ट्रिलियन डालर से उपर पंहुच गया है।
2008 में अमेरिका की आर्थिक मंदी में सैकड़ों बैंक एवं वित्तीय संस्थायें दिवालिया हो गई थी। उसके बाद शेयर बाजार के माध्यम से कारपोरेट जगत में तेजी के साथ निवेश बढ़ा। शेयर बाजार के जरिये कारपोरेट जगत से जुड़े कारोबारियों ने अरबों – खरबों रुपये कमाये। शेयर बाजार के जरिये कारपोरेट जगत में जो बहार आई थी। वह कृत्रिम तेजी थी, जिसका वास्तविक्ता से कोई लेना-देना नहीं था। अब वह कर्ज के बोझ से दबकर दिवालिया होने की कगार पर पंहुच गई है।
भारत जैसे देश में पिछले 8 वर्षों में हजारों कंपनियां कर्ज के बोझ से दबकर बंद हो गई। बैंक और अन्य वित्तीय संस्थाओं का लाखों करोड़ रुपया कंपनियों और कारपोरेट जगत में फंस गया। सरकार और बैंकों ने मिलकर लगभग 8 लाख करोड़ रुपयों की देनदारी को राईट -ऑफ कर अपनी बेलेंसशीट सुधारने का प्रयास किया। इसके बाद भी समस्या खत्म होने के स्थान पर केंसर की बीमारी की तरह आपरेशन के बाद और तेजी से बढ़ रही है। सैंकड़ों कम्पनियों ने अभिकरण में दिवालिया होने के लिए आवेदन कर रखे हैं। जिन कंपनियों ने दिवालिया कानून के तहत आवेदन किया है। उन कम्पनियों से 25 फीसदी राशि भी वसूल नहीं हो पा रही है। एनपीए बढ़कर 8.34 लाख करोड़ से ऊपर हो चुका है।
दुनिया के सभी देश कर्ज के संकट में फंस चुके हैं। वैश्विक व्यवस्था में जीडीपी का 24 फीसदी ऋण वैश्विक वित्तीय संस्थाओं से सरकारों को मिल जाता है। दुनिया के 69 देश अधिकतम सीमा का ऋण ले चुके है। भारत भी कुल जीडीपी का लगभग 20 फीसदी कर्ज ले चुका है। कर्ज के बोझ से दबी सरकारों को कर्ज की अदायगी, मंहगाई, बेरोजगारी तथा कोविड के बाद खाद्यान्न, कर्ज के संकट का सामना करना पड़ रहा है। कई देशों के पास आयात करने के लिये विदेशी मुद्रा नहीं है। रूस पर आर्थिक प्रतिबंध तथा रूस-यूक्रेन युद्ध के बाद आयात- निर्यात का संतुलन विकासशील एवं विकसित देशों का बिगड़ चुका है। जिसके कारण दर्जनों देशों में बगावत तथा गृह युद्ध जैसी स्थिति पैदा हो गई है। खाद्यान्न एवं कर्ज संकट का सामना दुनिया के 70 से अधिक देश कर रहे हैं। जिसके कारण दुनिया के अधिकांश देशों में अराजकता की स्थिति पैदा हो गई है।
दुनिया के सभी देश कर्ज के संकट में फंस चुके हैं। वैश्विक व्यवस्था में जीडीपी का 24 फीसदी ऋण वैश्विक वित्तीय संस्थाओं से सरकारों को मिल जाता है। दुनिया के 69 देश अधिकतम सीमा का ऋण ले चुके है। भारत भी कुल जीडीपी का लगभग 20 फीसदी कर्ज ले चुका है। कर्ज के बोझ से दबी सरकारों को कर्ज की अदायगी, मंहगाई, बेरोजगारी तथा कोविड के बाद खाद्यान्न, कर्ज के संकट का सामना करना पड़ रहा है। कई देशों के पास आयात करने के लिये विदेशी मुद्रा नहीं है। रूस पर आर्थिक प्रतिबंध तथा रूस-यूक्रेन युद्ध के बाद आयात- निर्यात का संतुलन विकासशील एवं विकसित देशों का बिगड़ चुका है। जिसके कारण दर्जनों देशों में बगावत तथा गृह युद्ध जैसी स्थिति पैदा हो गई है। खाद्यान्न एवं कर्ज संकट का सामना दुनिया के 70 से अधिक देश कर रहे हैं। जिसके कारण दुनिया के अधिकांश देशों में अराजकता की स्थिति पैदा हो गई है।
शेयर बाजार की गिरावट से वित्तीय संस्थान होंगे दिवालिया
शेयर बाजरों के जरिये कारपोरेट जगत में किया गया निवेश बड़ी तेजी से गिर रहा है। आर्थिक मंदी और बदहाली की स्थिति में शेयर बाजार की गिरावट से कारपोरेट जगत की कंपनियों की पूंजी को भारी नुकसान होगा। इस स्थिति में वित्तीय संस्थानो और निवेशकों की पूंजी डूबने का खतरा भी पैदा हो गया है। कर्ज अदायगी समय पर ना होने से वैश्विक अर्थ-व्यवस्था संकट के चरम पर पहुंच गई है। खाद्यान्न और अर्थ व्यवस्था के इस संकट में तृतीय विश्वयुद्ध की आशंका बलवती हो रही है। भूख एक बार फिर पूंजीवाद के खिलाफ लड़ने के लिए सड़कों पर उतर रही है। राजनैतिक एवं सामाजिक व्यवस्था चरमरा गई है, जिससे विकासशील एवं विकसित देशों में अराजकता की स्थिति बन गई है।