गुरु का दृष्टिकोण सदैव निष्पक्ष होता है

Dr. Gopal Das Nayak
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Gopaldas0327
I teach in the Commerce Faculty in a Government College. My first interest is in writing contemporary articles on various topics from time to time and...
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वर्तमान समय में जब शिक्षा को व्यापार, संबंधों को अवसर और गुरु को मात्र कोचिंग संस्थान के एक प्रशिक्षक के रूप में देखा जाने लगा है, तब गुरु पूर्णिमा हमें यह स्मरण कराती है कि सच्चा गुरु केवल पढ़ाने वाला नहीं होता, वह जीवन में दिशा देने वाला होता है।गुरु पूर्णिमा का महत्त्व इसी निष्पक्ष दृष्टिकोण के स्मरण में निहित है। यह दिन हमें बार-बार चेताता है कि ज्ञान, सम्मान और विकास की सभी दिशाएँ तभी साकार होती हैं जब हम किसी ऐसे गुरु को पाते हैं जो न केवल विद्वान हो, बल्कि निष्पक्ष भी हो।यह पर्व हमें यह याद दिलाता है कि सच्चे गुरु की प्राप्ति जीवन की सबसे बड़ी उपलब्धि है—क्योंकि वह न केवल हमें सफल बनाता है, वह हमें संतुलित बनाता है, और इस संतुलन की नींव होती है उसकी निष्पक्ष दृष्टि।

डॉ. गोपालदास नायक,

गुरु पूर्णिमा केवल एक पर्व नहीं, एक अनुभूति है, एक ऐसी तिथि जो मनुष्य को उसकी जड़ों की ओर लौटने का आमंत्रण देती है। जब शिष्य गुरु के चरणों में झुकता है, तब वह केवल श्रद्धा अर्पित नहीं करता, वह अपने अहं को त्यागता है। यह पर्व उस दृष्टि का सम्मान है जो जीवन के अंधकार में दीपक बनती है। और इस प्रकाश स्तंभ की सबसे मौलिक विशेषता यही होती है—उसका दृष्टिकोण सदैव निष्पक्ष होता है।

निष्पक्षता की यह व्याख्या आज के समय में अधिक प्रासंगिक हो जाती है, क्योंकि आज जब समाज वर्गों, विचारधाराओं, और इच्छाओं में बँट चुका है, तब गुरु का संतुलित और सत्यनिष्ठ दृष्टिकोण ही वह आधार बनता है जो व्यक्ति को आत्मविकास की ओर अग्रसर करता है। गुरु का काम न तो तुष्टिकरण है, न ही व्यक्तिगत लाभ की चिंता। उसका कार्य है—ज्ञान देना, भटकाव में संयम बनाना और अज्ञान के कोहरे में विवेक की मशाल जलाना।

गुरु की निष्पक्षता किसी दार्शनिक व्याख्यान मात्र की वस्तु नहीं है। यह एक जीवंत अनुशासन है, जो गुरु स्वयं अपने जीवन में साधता है। एक सच्चा गुरु अपने सभी शिष्यों को समान दृष्टि से देखता है, चाहे वह कितना ही कमतर या प्रतिभावान क्यों न हो। वह न प्रशंसा से मोहित होता है, न ही निंदा से विचलित। क्योंकि उसके लिए शिष्य केवल एक व्यक्ति नहीं, एक यात्रा है—जो अंधकार से प्रकाश की ओर जा रही है।

गुरु न किसी जाति का होता है, न किसी संप्रदाय का। वह न स्त्री में भेद करता है, न पुरुष में। न वह अमीर-गरीब के चश्मे से देखता है, न पद और प्रतिष्ठा की मृगमरीचिका में फँसता है। उसकी दृष्टि केवल आत्मा पर होती है—वह चेतना जो भ्रम में उलझी हुई है, और जिसे मुक्त करना ही गुरु का उद्देश्य है।

वर्तमान समय में जब शिक्षा को व्यापार, संबंधों को अवसर और गुरु को मात्र कोचिंग संस्थान के एक प्रशिक्षक के रूप में देखा जाने लगा है, तब गुरु पूर्णिमा हमें यह स्मरण कराती है कि सच्चा गुरु केवल पढ़ाने वाला नहीं होता, वह जीवन में दिशा देने वाला होता है।

गुरु की निष्पक्षता का सबसे बड़ा प्रमाण यह है कि वह अपने शिष्य को उसकी योग्यता के अनुसार आगे बढ़ने देता है, न कि अपनी इच्छा या पूर्वाग्रह के अनुसार। यदि कोई शिष्य कठिनाई में है, तो गुरु उसका मार्गदर्शन करता है, परंतु उसके संघर्ष को छीनता नहीं। वह सहयोग देता है, पर निर्भरता नहीं पालता। वह प्रेरणा देता है, पर बंधन नहीं बनता।

गुरु अपने शिष्यों को समान रूप से प्रेम करता है, पर प्रेम का अर्थ यहाँ पक्षपात नहीं, बल्कि साम्य है। जिस शिष्य की आवश्यकता है कठोरता की, उसे वह कटु सत्य सुनाने से नहीं कतराता, और जिसे सहारे की ज़रूरत है, उसे वह मौन करुणा से भर देता है।

यह निष्पक्षता ही गुरु को ‘गुरु’ बनाती है—साधारण शिक्षक नहीं। जो शिष्य की क्षमताओं को देखकर नहीं, बल्कि उसकी अंतरात्मा को देखकर निर्णय करता है, वह गुरु ही हो सकता है। समाज में अनेक विद्वान, बुद्धिजीवी और लेखक मिल जाते हैं, पर जिनमें यह सामर्थ्य हो कि वे सब कुछ जानकर भी बिना आग्रह के, बिना अपेक्षा के किसी को उबारें, वे ही गुरु कहलाते हैं।

गुरु की निष्पक्षता का अर्थ यह भी है कि वह शिष्य को चाटुकारिता के दलदल से बाहर निकालता है। वह उसके भीतर के भय, मोह, क्रोध और अहंकार को निरस्त करता है, चाहे इसके लिए उसे आलोचना ही क्यों न झेलनी पड़े। समाज में प्रायः देखा गया है कि जहाँ लोग सत्ता या यश की ओर झुकते हैं, वहीं सच्चे गुरु समाज के हाशिए पर खड़े उस व्यक्ति की पीड़ा को समझते हैं जिसे कोई नहीं सुनता। गुरु का दृष्टिकोण वहाँ भी निष्पक्ष होता है, जहाँ अन्य केवल अवसर देखते हैं।

समकालीन परिप्रेक्ष्य में यह विचार और अधिक मूल्यवान हो जाता है। जब राजनीति, मीडिया और शिक्षा सभी पक्षधर हो चले हैं, तब गुरु का तटस्थ दृष्टिकोण एक मर्यादा की स्थापना करता है। वह न भीड़ का अनुयायी होता है, न ही अपने पद का दुरुपयोग करता है। वह जहाँ खड़ा होता है, वहीं से दूसरों को ऊपर उठाता है।

गुरु पूर्णिमा का महत्त्व इसी निष्पक्ष दृष्टिकोण के स्मरण में निहित है। यह दिन हमें बार-बार चेताता है कि ज्ञान, सम्मान और विकास की सभी दिशाएँ तभी साकार होती हैं जब हम किसी ऐसे गुरु को पाते हैं जो न केवल विद्वान हो, बल्कि निष्पक्ष भी हो।

आज जबकि सूचना का विस्फोट है और हर व्यक्ति अपने विचार को अंतिम सत्य मानता है, तब गुरु की भूमिका और भी गंभीर हो जाती है। वह इस भीड़ में विवेक की पहचान कराता है, वह विचारों के कोलाहल में मौन की ताक़त सिखाता है, वह उपलब्धियों के बीच विनम्रता का अर्थ समझाता है।

कभी-कभी शिष्य यह समझता है कि गुरु उसकी उपेक्षा कर रहा है, जबकि वस्तुतः गुरु केवल उसकी परीक्षा ले रहा होता है। वह जानता है कि जीवन में केवल सफलता नहीं, अपमान, हार और अकेलापन भी आएगा—और यदि शिष्य उसके मार्गदर्शन में इन सबका सामना करने योग्य बन जाए, तभी वह सच्चा उत्तराधिकारी कहलाता है।

इस निष्पक्ष दृष्टिकोण की मिसाल हमें अनेक गुरु-शिष्य संबंधों में मिलती है। राम और विश्वामित्र, अर्जुन और द्रोणाचार्य, विवेकानंद और रामकृष्ण परमहंस, यहाँ तक कि कबीर और उनके शिष्य, सभी उदाहरण हैं उस निरपेक्ष दृष्टि के जो गुरु को केवल ज्ञाता नहीं, पथप्रदर्शक बनाती है।

निष्पक्षता का यह गुण गुरु को समाज से अलग नहीं करता, बल्कि समाज में उसकी भूमिका को और अधिक महत्वपूर्ण बना देता है। आज जब शिक्षकों को परीक्षा परिणाम, वेतन, और प्रतिस्पर्धा के दबाव में देखा जाता है, तब एक सच्चा गुरु वह है जो इस सबके बीच भी अपने शिष्य के लिए एक स्थिर, सच्चा और स्पष्ट विचार देता है।

गुरु पूर्णिमा पर हम केवल पूजन नहीं करते, हम गुरु के उस सत्य को स्वीकारते हैं जो हमारी आत्मा में छिपी सम्भावनाओं को उजागर करता है। वह हमें केवल पढ़ाता नहीं, वह हमें जीना सिखाता है। वह हमें हमारी कमज़ोरियों से परिचित कराता है, पर हमें उनमें डूबने नहीं देता। वह हमें हमारी श्रेष्ठता की चेतना देता है, पर अहंकार में फिसलने नहीं देता।

यह पर्व हमें यह याद दिलाता है कि सच्चे गुरु की प्राप्ति जीवन की सबसे बड़ी उपलब्धि है—क्योंकि वह न केवल हमें सफल बनाता है, वह हमें संतुलित बनाता है, और इस संतुलन की नींव होती है उसकी निष्पक्ष दृष्टि।

गुरु का दृष्टिकोण न तो तात्कालिक लाभों में उलझा होता है, न ही वह बाह्य प्रदर्शन से प्रभावित होता है। वह शिष्य के भीतर झाँकता है और जो वहाँ है, उसे निखारने का प्रयत्न करता है। वह आलोचक भी है, प्रेरक भी; वह संयमित है, सशक्त भी; और सबसे बड़ी बात—वह निष्पक्ष है।

आज जब यह पर्व हमारे सामने है, तो यह समय है आत्ममंथन का—क्या हम ऐसे किसी गुरु के संपर्क में हैं? क्या हम उस निष्पक्षता को समझते हैं या केवल अपेक्षाओं का एक बोझ लेकर गुरु से सजीवता की मांग करते हैं? गुरु को पूजना तभी सार्थक है जब हम उसकी दृष्टि की गहराई को समझें।

इसलिए, जब हम “गुरुर्ब्रह्मा, गुरुर्विष्णु, गुरुर्देवो महेश्वरः” कहते हैं, तब यह मात्र मंत्रोच्चार नहीं, बल्कि उस निष्पक्षता को नमन है जो हमें अपने जीवन की दिशा स्वयं चुनने में सक्षम बनाती है।

गुरु पूर्णिमा केवल फूल चढ़ाने का दिन नहीं, बल्कि उस निस्पृह दृष्टि को आत्मसात करने का अवसर है, जो हर गुरु के भीतर चुपचाप जलती है—सदियों से, पीढ़ियों से, आत्माओं के उध्दार के लिए।

गुरु का दृष्टिकोण सदैव निष्पक्ष होता है—क्योंकि वही दृष्टिकोण जीवन का वास्तविक प्रकाश है।

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I teach in the Commerce Faculty in a Government College. My first interest is in writing contemporary articles on various topics from time to time and writing poems and stories.