लेखक- विनोद तकियावाला
भारत अपनी आजादी के 75 वर्षों में अमृत महोत्सव मना रहा है वही इस अमृत काल में केंद्र सरकार द्वारा कई योजना ‘ सरकारी कार्यक्रम व महोत्सव मनाने में मस्त है।इस उत्सव में सरकारी खजानों से जनता के पैसे पानी की तरह बहाया जा रहा है, बही बेचारी जनता अपनी जीवन जीविका के जंग जूझ रही है।मंहगाई रूपी सुरसा के अपने मुँह फैलाये खडी है खैर।मंहगाई पर नियंत्रण करने के बजाय वर्तमान की केंद्र सरकार अपनी गलत नीति को लागू करने व्यस्त है।पहले वी एस एन एल ,एयर इंडिया,एच ए एल आदि नव रतन कम्पनी के बाद जनता की गाढ़ी कमाई की जमा पूंजी संजो कर रखने वाले बैक का काली नजर पड़ गई है।बैक की संक्षिप्त जानकारी पर सर सरी निगाह डालते है।इन आर्थिक क्षेत्र पर पैनी नजर व भारतीय अर्थव्यवस्था के विशेषज्ञ के चेहरे चिंता की लकीरें दिखाई पड़ रही है।क्योकि भारत मे बैंकों के राष्ट्रीयकरण के 53 वर्षों के बाद सरकार बैंकों के निजीकरण की राह पर चल पड़ी रही है।सरकार द्वारा भारतीय स्टेट बैंक को छोड़कर सभी पब्लिक सेक्टर के बैंकों का निजीकरण करने जा रही है।इस संदर्भ में नेशनल काउंसिल ऑफ एप्लाइड इकोनॉमिक रिसर्च की एक रिपोर्ट के अनुसार पिछले दशक के दौरान एसबीआई को छोड़कर अधिकांश सरकारी बैंक,प्राइवेट बैंकों से पिछड़ गए हैं। इस संदर्भ में एन सी ए ई आर की पूनम गुप्ता और अर्थशास्त्री अरविंद पनगढ़िया ने अपनी रिपोर्ट में उल्लेख किया है कि सरकारी बैंकों ने अपने प्राइवेट सेक्टर के बैंकों की तुलना में संपत्ति और इक्विटी पर कम रिटर्न प्राप्त किया है।सरकार आने वाले दिनों में बैंकिंग संशोधन बिल भी लाने की योजना बना रही है,इस बिल के द्वारा सरकार बैंकों में अपना हिस्सा 26% तक कम करेगी बैंकों का नियंत्रण अपने हाथ में रखेगी।सरकार शेष बचे बैंकों को एक बार फिर मर्ज करके इनकी संख्या कम करने की सोच रही है ।देश की आजादी के 75 वर्षों और बैंकों के राष्ट्रीयकरण के 53 वर्षों के बाद आज सरकारी बैंकों की संख्या घटकर महज 12 रह गई है।आप को बता दे कि 19 जुलाई 1969 को देश के 14 प्रमुख बैंकों का पहली बार राष्ट्रीयकरण किया था।1980 में पुनः 6 बैंक राष्ट्रीयकृत किये गये। 19 जुलाई 2022 को बैंकों के राष्ट्रीयकरण के 53 वर्ष पूरे हो चुके है।दूसरे विश्व युद्ध के बाद यूरोप में केंद्रीय बैंक को सरकारों के अधीन करने के विचार ने जन्म लिया उधर बैंक ऑफ़ इंग्लैंड का राष्ट्रीयकरण हुआ और इधर भारतीय रिज़र्व बैंक के राष्ट्रीयकरण की बात उठी जो 1949 में पूरी हो गयी।सन 1955 में इम्पीरियल बैंक,जो बाद में ‘स्टेट बैंक ऑफ़ इंडिया’ नाम सरकारी बैंक बन गया। लेकिन आजादी के बाद कमर्शियल बैंक सामाजिक उत्थान की प्रक्रिया में सहायक नहीं हो रहे थे।1947से लेकर 1955 तक 360 छोटे-मोटे . बैंक डूब गए थे जिनमें जनता की जमा पूंजी के करोड़ों रूपया डूब गया।कुछ बैंकों में काला बाज़ारी और जमाखोरी के धंधों में पैसा लगा रहे थे।सरकार ने इसे रोकने के लिए बैंकों की कमान अपने हाथ में लेने का फैसला किया ताकि वह इन्हें जनता व . राष्ट्र के विकास के काम में भी लगा सके।19 जुलाई 1969 को देश के 14 प्रमुख बैंकों का पहली बार सरकार द्वारा राष्ट्रीयकरण किया गया था और वर्ष 1980 में पुनः 6 बैंक राष्ट्रीयकृत हुए थे।राष्ट्रीयकरण के बाद बैंकों की शाखाओं में बढ़ोतरी हुई।बैक की शाखा शहर से बैंक गांव-देहात में खुलने प्रारम्भ होने लगें।एक आंकड़ों के मुताबिक़ जुलाई 1969 को देश में इन बैंकों की सिर्फ 8322 शाखाएं थीं।2022 के आते आते यहआंकड़ा लगभग 88 हजार का हो गया। देश के विकास में इन राष्ट्रीयकृत बैंकों की अंहम भूमिका रही और इन बैंकों ने कृषि,उद्योग,सड़क, बिजली,टेलिकॉम,शिक्षा,रियल एस्टेट सभी के विकास के लिये अपना भरपूर सहयोग किया है। डी.आर.आई जैसे लघु ऋणों से लेकर बड़े बड़े प्रोजेक्ट्स के लिए ऋण की व्यवस्था की।
कालान्तर सन वर्ष 1980 में बैंकिंग सेक्टर में कंप्यूटर की आवश्यकता महसूस हुई।इसे ध्यान में रखते हुए 1988 में रिजर्व बैंक ने डा. रंगराजन की अध्यक्षता में एक कमेटी का गठन किया जिसने बैंकों में कंप्यूटर लगाने की सिफारिश की और 1993 में बैंकों में कंप्यूटर लगाने के लिए सहमति बनी और बैंकों में कंप्यूटर लगने शुरू हो गये और समय के साथ साथ उनमे बदलाव होता गया और आज कंप्यूटर के बिना बैंकिंग संभव ही नहीं लगती।हालाँकि कंप्यूटर से बैकिंग तो आसान और 24 घंटे उपलब्ध हो पाई लेकिन इसके कारण बैंकों में रोजगार की संभावनाएं कम हो गईं।वही 1994 में नये प्राइवेट बैंकों का युग प्रारम्भ हुआ।आज देश में 8 न्यू प्राइवेट जनरेशन बैंक,14 ओल्ड जनरेशन प्राइवेट बैंक,11 स्माल फाइनेंस बैंक और 43 क्षेत्रीय ग्रामीण बैंक काम कर रहे हैं।2018 में सरकार ने इंडिया पोस्ट पेमेंट बैंक की स्थापना की जिसका मकसद पोस्ट ऑफिस के नेटवर्क का इस्तेमाल करके बैंकिंग को गाँव गाँव तक पहुंचना था।इसके साथ साथ और कई प्राइवेट पेमेंट बैंकों की भी शुरुआत हुई।
आर्थिक मामले के विश्लेषज्ञ का मानना है कि बैंकों का राष्ट्रीयकरण न होकर सरकारी करण ज्यादा हुआ।कांग्रेस की सरकार ने बैंकों के बोर्ड में अपने राजनीतिक लोगों को बिठाकर बैंकों का दुरुपयोग किया।जो लोग बोर्ड में बैंकों की निगरानी के लिए बिठाये गये थे ‘उन्होंने अपने स्वार्थों की पूर्ति के लिए बैंकों का भरपूर इस्तेमाल किया।
सन 2014 में केन्द्र में मोदी सरकार के आने के बाद बैंकों से जुड़े फैसले जनधन खाते खोलना, मुद्रा लोन,प्रधान मंत्री बीमा योजना,अटल पेंशन योजना, प्रधानमंत्री आवास योजना आदि सभी योजनाओं का क्रियान्वयन इन बैंकों ने उत्साह से किया है। सबसे अभूतपूर्व कार्य नोटबन्दी के 54 दिनों मे इन बैंकों ने करके . दिखाया।देश के सरकारी तंत्र की कोई भी इकाई(सेना को छोड़कर)36 घंटे के नोटिस पर ऐसा काम नहीं कर सकती जैसा इन सरकारी क्षेत्र के बैंकों ने कर दिखाया।1991 के आर्थिक संकट के उपरान्त बैंकिंग क्षेत्र के सुधार के दृष्टि से जून 1991 में एम. नरसिंहम की अध्यक्षता में नरसिंहम् समिति अथवा वित्तीय क्षेत्रीय सुधार समिति की स्थापना की गई जिसने अपनी संस्तुतियां दिसंबर 1991 में प्रस्तुत की। नरसिंहम समिति द्वितीय की स्थापना 1998 में हुई।इसने सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों के लिये व्यापक स्वायत्तता प्रस्तावित की गई थी।समिति ने बड़े भारतीय बैंकों के विलय के लिये भी सिफारिश की थी।इसी समिति ने नए निजी बैंकों को खोलने का सुझाव दिया जिसके आधार पर 1993 में सरकार ने इसकी अनुमति प्रदान की।भारतीय रिजर्व बैंक की देखरेख में बैंक के बोर्ड को राजनीतिक हस्तक्षेप से मुक्त रखने की सलाह भी नरसिंहम् समिति ने दी थी।
सरकारी बैंकों का पहला विलय 1993 में न्यू बैंक ऑफ़ इंडिया का पंजाब नेशनल बैंक में हुआ। नरसिंहम् समिति की सिफारशों पर कार्यवाही करते हुए केन्द्र सरकार ने सबसे पहले 2008 में स्टेट बैंक ऑफ़ सौराष्ट्र,2010 में स्टेट बैंक ऑफ़ इंदौर और 2017 में बाकि पांच एसोसिएट बैंकों का स्टेट बैंक ऑफ़ इण्डिया में विलय करने के बाद 2019 में तीन बैंकों, बैंक ऑफ़ बड़ौदा,विजया बैंक और देना बैंक का विलय तथा 1अप्रैल 2020 से 6 बैंक सिंडीकेट बैंक,ओरिएंटल बैंक ऑफ कॉमर्स,यूनाइटेड बैंक ऑफ इंडिया, इलाहाबाद बैंक, कारपोरेशन बैंक और आंध्रा बैंक का विलय कर दिया है।
इसके बाद वर्तमान में सरकारी क्षेत्र के 12 बैंक रह गये हैं। सरकार का कहना है की आज के समय में छोटे छोटे बैंकों की आवश्यकता नहीं है बल्कि 6 से 7 बड़े बैंकों की आवश्यकता है क्योंकि ज्यादा बैंक होने से आपस में ही प्रतिस्पर्धा के कारण टिक नहीं पा रहे हैं और एन.पी.ए.से निपटने में भी नाकाम हो रहे हैं। सरकार के लिए भी इन बैंकों को पूंजी जुटाने में भी दिक्कत हो रही है। बैंकों के निजीकरण से जहां सरकार को पैसा तो मिल जायेगा लेकिन इन बैंकों का नियंत्रण निजी हाथों में चला जाएगा। निजीकरण के बाद सरकार के द्वारा चलाई जा रही विभिन्न सरकारी योजनाओं को प्रभावित करेगी,क्योंकि निजी बैंक जनता के जन कल्याण कार्यक्रम को प्राथमिकता नहीं देंगे।वहीँ ग्राहकों के लिए भी ज्यादा सर्विस चार्जेस की मार भी पड़ेगी और अभी एम.एस.एम.इ.,कृषि क्षेत्र और लघु उद्योगों को आसानी से मिल रहे ऋण में भी मुश्किल होगी।निजी बैंकों के प्रबंधन घाटे में चल रही ब्रांचों को बंद करेंगे,जिससे नये रोजगार के अवसर भी कम हो जायेंगे।वैसे भी निजी बैंकों में ज्यादातर कर्मचारी ठेके पर काम करते हैं।निजी बैंकों में ट्रेड यूनियन बनाने का अधिकार नहीं है।कुल मिलाकर निजीकरण से सरकार, ग्राहक और कर्मचारियों को नुकसान ही होगा।पहले से निजी क्षेत्र में चल रहे बैंकों के इतिहास और उनकी कार्य प्रणाली के कारण,आये दिन कुछ न कुछ गड़बड़ियां और घोटालों को देखते हुए सरकार का सरकारी क्षेत्र के बैंकों को निजी हाथों में सोंपना उचित नहीं रहेगा।बैंकों के विलय के कारण बैंकों की शाखाओं को बंद किया जा रहा है।कर्मचारियों की संख्या में कमी आई है।बैंकों में नई भर्ती न के बराबर परिणामस्वरूप कारण ग्राहक सेवा प्रभावित होती है और बैंक कर्मचारियों पर काम का ज्यादा दबाव रहता है।
इस बात इन्कार नही किया जा सकता है कि आज सरकारी क्षेत्र के बैंकों में व्यापक स्तर पर सुधार की आवश्यकता है।जिसके लिए सरकार विपक्षी दलों के साथ इस प्रक्रिया में बैंकिंग उद्योग धंधे के हित में काम करने वाले गैर सरकारी संगठनों,अन्य स्टैक होल्डर्स और बैंकों की ट्रेड यूनियनों के साथ में मिलकर रणनीति बनाई जाय।सरकार राष्ट्रीयकृत बैंकों के निजीकरण मामले को गंभीरता से लेना चाहिए ताकि जनता व राष्ट्र का विकास अवरुद्ध ना हो।फिलहाल आप से यह कहते हुए हम विदा लेते है – ” ना ही काहुँ
से दोस्ती , ना ही काहूँ से बैर । खबरी लाल तो माँगें ‘ सबकी खैर ।फिर मिलेगे – तिरक्षी नजर से तीखी खबर के संग ‘
कालान्तर सन वर्ष 1980 में बैंकिंग सेक्टर में कंप्यूटर की आवश्यकता महसूस हुई।इसे ध्यान में रखते हुए 1988 में रिजर्व बैंक ने डा. रंगराजन की अध्यक्षता में एक कमेटी का गठन किया जिसने बैंकों में कंप्यूटर लगाने की सिफारिश की और 1993 में बैंकों में कंप्यूटर लगाने के लिए सहमति बनी और बैंकों में कंप्यूटर लगने शुरू हो गये और समय के साथ साथ उनमे बदलाव होता गया और आज कंप्यूटर के बिना बैंकिंग संभव ही नहीं लगती।हालाँकि कंप्यूटर से बैकिंग तो आसान और 24 घंटे उपलब्ध हो पाई लेकिन इसके कारण बैंकों में रोजगार की संभावनाएं कम हो गईं।वही 1994 में नये प्राइवेट बैंकों का युग प्रारम्भ हुआ।आज देश में 8 न्यू प्राइवेट जनरेशन बैंक,14 ओल्ड जनरेशन प्राइवेट बैंक,11 स्माल फाइनेंस बैंक और 43 क्षेत्रीय ग्रामीण बैंक काम कर रहे हैं।2018 में सरकार ने इंडिया पोस्ट पेमेंट बैंक की स्थापना की जिसका मकसद पोस्ट ऑफिस के नेटवर्क का इस्तेमाल करके बैंकिंग को गाँव गाँव तक पहुंचना था।इसके साथ साथ और कई प्राइवेट पेमेंट बैंकों की भी शुरुआत हुई।
आर्थिक मामले के विश्लेषज्ञ का मानना है कि बैंकों का राष्ट्रीयकरण न होकर सरकारी करण ज्यादा हुआ।कांग्रेस की सरकार ने बैंकों के बोर्ड में अपने राजनीतिक लोगों को बिठाकर बैंकों का दुरुपयोग किया।जो लोग बोर्ड में बैंकों की निगरानी के लिए बिठाये गये थे ‘उन्होंने अपने स्वार्थों की पूर्ति के लिए बैंकों का भरपूर इस्तेमाल किया।
सन 2014 में केन्द्र में मोदी सरकार के आने के बाद बैंकों से जुड़े फैसले जनधन खाते खोलना, मुद्रा लोन,प्रधान मंत्री बीमा योजना,अटल पेंशन योजना, प्रधानमंत्री आवास योजना आदि सभी योजनाओं का क्रियान्वयन इन बैंकों ने उत्साह से किया है। सबसे अभूतपूर्व कार्य नोटबन्दी के 54 दिनों मे इन बैंकों ने करके . दिखाया।देश के सरकारी तंत्र की कोई भी इकाई(सेना को छोड़कर)36 घंटे के नोटिस पर ऐसा काम नहीं कर सकती जैसा इन सरकारी क्षेत्र के बैंकों ने कर दिखाया।1991 के आर्थिक संकट के उपरान्त बैंकिंग क्षेत्र के सुधार के दृष्टि से जून 1991 में एम. नरसिंहम की अध्यक्षता में नरसिंहम् समिति अथवा वित्तीय क्षेत्रीय सुधार समिति की स्थापना की गई जिसने अपनी संस्तुतियां दिसंबर 1991 में प्रस्तुत की। नरसिंहम समिति द्वितीय की स्थापना 1998 में हुई।इसने सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों के लिये व्यापक स्वायत्तता प्रस्तावित की गई थी।समिति ने बड़े भारतीय बैंकों के विलय के लिये भी सिफारिश की थी।इसी समिति ने नए निजी बैंकों को खोलने का सुझाव दिया जिसके आधार पर 1993 में सरकार ने इसकी अनुमति प्रदान की।भारतीय रिजर्व बैंक की देखरेख में बैंक के बोर्ड को राजनीतिक हस्तक्षेप से मुक्त रखने की सलाह भी नरसिंहम् समिति ने दी थी।
सरकारी बैंकों का पहला विलय 1993 में न्यू बैंक ऑफ़ इंडिया का पंजाब नेशनल बैंक में हुआ। नरसिंहम् समिति की सिफारशों पर कार्यवाही करते हुए केन्द्र सरकार ने सबसे पहले 2008 में स्टेट बैंक ऑफ़ सौराष्ट्र,2010 में स्टेट बैंक ऑफ़ इंदौर और 2017 में बाकि पांच एसोसिएट बैंकों का स्टेट बैंक ऑफ़ इण्डिया में विलय करने के बाद 2019 में तीन बैंकों, बैंक ऑफ़ बड़ौदा,विजया बैंक और देना बैंक का विलय तथा 1अप्रैल 2020 से 6 बैंक सिंडीकेट बैंक,ओरिएंटल बैंक ऑफ कॉमर्स,यूनाइटेड बैंक ऑफ इंडिया, इलाहाबाद बैंक, कारपोरेशन बैंक और आंध्रा बैंक का विलय कर दिया है।
इसके बाद वर्तमान में सरकारी क्षेत्र के 12 बैंक रह गये हैं। सरकार का कहना है की आज के समय में छोटे छोटे बैंकों की आवश्यकता नहीं है बल्कि 6 से 7 बड़े बैंकों की आवश्यकता है क्योंकि ज्यादा बैंक होने से आपस में ही प्रतिस्पर्धा के कारण टिक नहीं पा रहे हैं और एन.पी.ए.से निपटने में भी नाकाम हो रहे हैं। सरकार के लिए भी इन बैंकों को पूंजी जुटाने में भी दिक्कत हो रही है। बैंकों के निजीकरण से जहां सरकार को पैसा तो मिल जायेगा लेकिन इन बैंकों का नियंत्रण निजी हाथों में चला जाएगा। निजीकरण के बाद सरकार के द्वारा चलाई जा रही विभिन्न सरकारी योजनाओं को प्रभावित करेगी,क्योंकि निजी बैंक जनता के जन कल्याण कार्यक्रम को प्राथमिकता नहीं देंगे।वहीँ ग्राहकों के लिए भी ज्यादा सर्विस चार्जेस की मार भी पड़ेगी और अभी एम.एस.एम.इ.,कृषि क्षेत्र और लघु उद्योगों को आसानी से मिल रहे ऋण में भी मुश्किल होगी।निजी बैंकों के प्रबंधन घाटे में चल रही ब्रांचों को बंद करेंगे,जिससे नये रोजगार के अवसर भी कम हो जायेंगे।वैसे भी निजी बैंकों में ज्यादातर कर्मचारी ठेके पर काम करते हैं।निजी बैंकों में ट्रेड यूनियन बनाने का अधिकार नहीं है।कुल मिलाकर निजीकरण से सरकार, ग्राहक और कर्मचारियों को नुकसान ही होगा।पहले से निजी क्षेत्र में चल रहे बैंकों के इतिहास और उनकी कार्य प्रणाली के कारण,आये दिन कुछ न कुछ गड़बड़ियां और घोटालों को देखते हुए सरकार का सरकारी क्षेत्र के बैंकों को निजी हाथों में सोंपना उचित नहीं रहेगा।बैंकों के विलय के कारण बैंकों की शाखाओं को बंद किया जा रहा है।कर्मचारियों की संख्या में कमी आई है।बैंकों में नई भर्ती न के बराबर परिणामस्वरूप कारण ग्राहक सेवा प्रभावित होती है और बैंक कर्मचारियों पर काम का ज्यादा दबाव रहता है।
इस बात इन्कार नही किया जा सकता है कि आज सरकारी क्षेत्र के बैंकों में व्यापक स्तर पर सुधार की आवश्यकता है।जिसके लिए सरकार विपक्षी दलों के साथ इस प्रक्रिया में बैंकिंग उद्योग धंधे के हित में काम करने वाले गैर सरकारी संगठनों,अन्य स्टैक होल्डर्स और बैंकों की ट्रेड यूनियनों के साथ में मिलकर रणनीति बनाई जाय।सरकार राष्ट्रीयकृत बैंकों के निजीकरण मामले को गंभीरता से लेना चाहिए ताकि जनता व राष्ट्र का विकास अवरुद्ध ना हो।फिलहाल आप से यह कहते हुए हम विदा लेते है – ” ना ही काहुँ
से दोस्ती , ना ही काहूँ से बैर । खबरी लाल तो माँगें ‘ सबकी खैर ।फिर मिलेगे – तिरक्षी नजर से तीखी खबर के संग ‘