एमपी के अधिकारी भी गजब है : जो धाराएं अस्तित्व में ही नहीं उनपर कर दी कार्यवाही, अवैध कॉलोनियों पर शासन के FIR आदेश को हाईकोर्ट ने बताया अवैध, 50 से अधिक प्रकरण अब सवालों के घेरे में !

devendra malviya
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इंदौर। अवैध कॉलोनियों की बाढ़ से जूझ रहे इंदौर जिले में शासन द्वारा की गई कार्रवाई पर अब सवाल उठने लगे हैं। हाल ही में माननीय उच्च न्यायालय इंदौर खंडपीठ ने एक महत्वपूर्ण आदेश में अवैध कॉलोनियों के निर्माण को लेकर दर्ज की गई FIR आदेश को निरस्त कर दिया है। यह मामला ग्राम काली बिल्लोद, तहसील देपालपुर से जुड़ा था, जिसमें अपर कलेक्टर गौरव बैनल द्वारा दिनांक 03.05.2025 को FIR दर्ज करने के आदेश दिए गए थे। याचिकाकर्ता शैलेन्द्र मुद्गल की ओर से अधिवक्ता रजत रघुवंशी ने दलील दी कि जिस धारा के तहत कार्रवाई की गई, वह अब अस्तित्व में ही नहीं है। इसी प्रकार जिस ग्राम पंचायत (कालोनी विकास) नियम 1999 के तहत कार्रवाई की गई, वह नियम भी वर्ष 2014 से ही निरस्त हो चुका है। माननीय न्यायमूर्ति प्रणय वर्मा की एकल पीठ ने यह मानते हुए कि कार्रवाई ऐसे कानूनी प्रावधानों पर आधारित थी जो अब अस्तित्व में नहीं हैं, उक्त आदेश को निरस्त कर दिया।

इन धाराओं पर की थी कार्यवाही :

म.प्र. भूमि राजस्व संहिता की धारा 172, जिस पर कार्रवाई आधारित थी, 25 सितंबर 2018 को हटा दी गई थी।

म.प्र. ग्राम पंचायत (कालोनी विकास) नियम 1999 को भी 1 मार्च 2014 को निरस्त कर दिया गया था।

इसके बावजूद प्रशासन ने इन्हीं धाराओं के आधार पर एफआईआर के आदेश जारी किए।

कम से कम 50 से अधिक एफआईआर के आदेश क्या अब निरस्त होंगे?

सूत्रों के अनुसार, इंदौर कलेक्टर आशीष सिंह के निर्देश पर रजिस्ट्री ऑफिस से जानकारी निकालकर, पटवारियों और आरआई के माध्यम से पंचनामे बनवाए गए और लगभग 145 प्रकरण अपर कलेक्टर गौरव बैनल की कोर्ट में चलाए गए। इनमें से लगभग 50 मामलों में एफआईआर दर्ज करने के आदेश जारी किए गए। अब जब उच्च न्यायालय ने इनमें से एक आदेश को निरस्त कर दिया है, तो सवाल उठता है कि:

❖ क्या शेष सभी एफआईआर आदेश भी इसी तरह रद्द होंगे?

❖ .क्या प्रशासन ने जानबूझकर नाम मात्र की कार्रवाई की ताकि वो न्यायालय में टिक न सके?

❖ क्या यह अवैध कॉलोनाइज़र को बचाने की ‘पीछे के रास्ते’ से मदद करने का तरीका नहीं है?

कब आएंगे असली दोषी सलाखों के पीछे?

इतने वर्षों से हजारों अवैध कॉलोनियाँ विकसित हो चुकी हैं, लेकिन सवाल यह है:

कितने कॉलोनाइज़र जेल भेजे गए?

कितनों की अवैध संपत्ति ज़ब्त की गई?

ED और इन्फोर्समेंट ब्यूरो ने जो जानकारी मांगी थी, उसका क्या हुआ?

जनता को भ्रम में डालने के लिए औपचारिकताएं पूरी की जा रही हैं लेकिन वास्तविक परिणाम शून्य हैं।

क्या ली गई थी कानूनी सलाह?

सरकार द्वारा की गई कार्रवाई न्यायालय में एक के बाद एक विफल हो रही है। इसका सीधा अर्थ है कि या तो प्रशासन ने बिना कानूनी सलाह (Legal Vetting) के आदेश दिए या फिर जानबूझकर कमजोर आधार पर कार्रवाई की ताकि वह उच्च न्यायालय में खारिज हो जाए।

क्या शासन को हर कार्यवाही से पहले विधिक सलाह नहीं लेनी चाहिए थी?

अब शासन क्या करेगा – क्या नए सिरे से मजबूत कानूनी धाराओं में कार्यवाही की जाएगी या यह सब महज जनता को दिखाने का ढोंग था?

कानूनी तौर पर प्रशासन क्या कर सकता था?

अवैध कॉलोनी विकास को लेकर म.प्र. भू-राजस्व संहिता की संशोधित धारा 59 और 2018 में बनाए गए नए नियम – मध्य प्रदेश भू-राजस्व संहिता (निर्धारण एवं पुनर्निर्धारण) नियम, 2018 के तहत उचित नोटिस देकर कार्रवाई की जा सकती थी।

कॉलोनी विकसित करने वालों के खिलाफ भारतीय न्याय संहिता, 2023 की धाराओं के तहत धोखाधड़ी, फर्जी दस्तावेज़ और भूमि उपयोग उल्लंघन के प्रावधानों में एफआईआर की जा सकती थी।

उचित कानूनी जांच और सबूतों के आधार पर बिना खामियों वाली FIR की जा सकती थी जो न्यायालय में टिकती।

अब जनता को चाहिए जवाब…

यह प्रकरण सिर्फ एक याचिका की जीत नहीं, बल्कि प्रशासन की लापरवाही का पर्दाफाश है। अब देखना यह है कि शासन जनता के साथ न्याय करेगा या फिर भ्रष्ट सिस्टम की ढाल बनकर दोषियों को बचाता रहेगा।

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