सोशल मीडिया की भीड़ से अलग… संघर्ष की अनसुनी कहानी -अनिल नागर

sadbhawnapaati
6 Min Read

इंदौर। आज जब हर कोई अपने फोन में खोया हुआ है, तब कुछ ऐसे भी लोग हैं जो इस चमक-धमक से दूर अपनी ज़िंदगी की नयी इबारत लिख रहे हैं। न फेसबुक, न इंस्टाग्राम, न ट्विटर, न यूट्यूब—इनकी दुनिया में सिर्फ किताबें, सपने और संघर्ष हैं।

मध्य प्रदेश के बड़े शहरों इंदौर, भोपाल, ग्वालियर और जबलपुर में ऐसे सैकड़ों छात्र अपनी मेहनत और लगन से भविष्य की इमारत गढ़ने में जुटे हैं। ‘दैनिक सदभावना पाती’ की टीम अब उन गुमनाम हीरो की कहानियों को सामने लाने का प्रयास कर रही है, जो कड़ी मेहनत कर रहे हैं लेकिन सुर्खियों से दूर हैं।

हर साल हजारों छात्र सरकारी नौकरियों और उच्च शिक्षा के लिए कड़ी मेहनत करते हैं। उनमें से कुछ का चयन होता है और उनकी कहानियाँ मीडिया में उभरकर सामने आती हैं। लेकिन उन हजारों छात्रों की आवाज़ गुमनाम रह जाती है, जिनका संघर्ष और हौसला नज़रअंदाज़ कर दिया जाता है।

अब हम आपको एक ऐसे ही नायाब हीरो की कहानी बताने जा रहे हैं। एक ऐसा छात्र जो अपने सपनों की राह में हर मुश्किल को झेलने के लिए तैयार है।

अनिल नागर: संघर्ष और सपनों की अनोखी कहानी

अनिल नागर, ये नाम शायद आपने पहले नहीं सुना होगा। लेकिन उनकी कहानी हर उस छात्र के लिए प्रेरणा बन सकती है, जो मुश्किल हालातों में भी हार मानने को तैयार नहीं। अनिल का गाँव जमोनिया (मलाबार), मध्य प्रदेश के राजगढ़ जिले के ब्यावरा के पास स्थित है। एक छोटा सा गाँव, जहाँ साधारण से सपने देखना आसान है, लेकिन उन्हें पूरा करना बेहद कठिन। अनिल के पिता एक कृषक हैं, जो दिन-रात मेहनत कर अपने बेटे को पढ़ाने का सपना देख रहे हैं।

12वीं में 94% अंक हासिल करने के बाद, अनिल ने अपने गाँव को छोड़कर इंदौर का रुख किया। इंदौर से ग्रेजुएशन और पोस्ट ग्रेजुएशन उनके मन में सिर्फ एक ही लक्ष्य था—MPPSC परीक्षा में सफल होना और अपने परिवार की आर्थिक स्थिति को बेहतर बनाना। पिछले आठ सालों से अनिल इंदौर में रहकर पढ़ाई कर रहे हैं। इस दौरान उन्होंने तीन बार इंटरव्यू तक का सफर तय किया, लेकिन अंतिम सफलता अब तक हाथ नहीं लगी।

अनिल से खास बातचीत
हमने अनिल से इंदौर में उनकी कोचिंग के बाहर मुलाकात की। उनकी आँखों में थकान थी, लेकिन इरादे में वही पुराना जोश। बातचीत शुरू करते ही अनिल ने मुस्कुराते हुए कहा,

“सफलता अभी दूर है, लेकिन जब तक मैं चल रहा हूँ, तब तक हार कहाँ?”

हमने उनसे पूछा कि उन्होंने सोशल मीडिया से दूरी क्यों बनाई? इस पर अनिल ने स्पष्टता से जवाब दिया,

“देखिए, मैं जानता हूँ कि सोशल मीडिया पर समय बिताना कितना आसान है। लेकिन जब आप अपने सपनों को गंभीरता से लेना चाहते हैं, तो आपको खुद को डिसिप्लिन करना ही पड़ता है। मैंने खुद से वादा किया था कि जब तक मैं सफल नहीं होता, तब तक सोशल मीडिया से दूर ही रहूँगा। और यकीन मानिए, इसका फ़ायदा भी मिला है।”

जब उनसे पूछा गया कि इंटरव्यू तक पहुँचने के बाद भी चयन न होने पर कैसा महसूस होता है, तो अनिल कुछ पल के लिए शांत हो गए। फिर बोले,

“कभी-कभी बहुत निराशा होती है। लेकिन फिर मैं खुद से एक ही सवाल पूछता हूँ—क्या मैंने पूरी मेहनत की थी? अगर जवाब ‘हाँ’ होता है, तो मैं खुद को फिर से खड़ा कर लेता हूँअसफलता से डरता नहीं, बल्कि सीखता हूँ।”

जब बात परिवार पर आई, तो अनिल की आवाज़ में भावनाएँ छलकने लगीं।

“परिवार में माता-पिता और एक छोटा भाई है, जिसकी शादी हो चुकी है। अब मुझे सिर्फ पढ़ाई पर ध्यान देने के लिए कहा गया है। परिवार का पूरा समर्थन मुझे मिला है, लेकिन आर्थिक स्थितियाँ अक्सर साथ नहीं देतीं। पापा हर महीने ₹11,000 भेजते हैं। एक किसान के लिए यह रकम बहुत बड़ी है। कई बार लगता है कि मैं उनके साथ अन्याय कर रहा हूँ, लेकिन फिर यह सोचता हूँ कि अगर मैं हार गया तो उनकी सारी मेहनत बेकार हो जाएगी। यही सोच मुझे आगे बढ़ने के लिए प्रेरित करती है।”

हमने जब उनसे पूछा कि वो किस तरह पढ़ाई करते हैं, तो उन्होंने कहा,

“मैं रोज़ाना 10-12 घंटे पढ़ता हूँ। टाइम-टेबल बनाकर चलता हूँ और हर विषय को गहराई से समझने की कोशिश करता हूँ। मैंने खुद को इंटरनेट और सोशल मीडिया से दूर रखा है ताकि मेरा ध्यान कभी न भटके। बस, किताबें ही मेरी सबसे बड़ी दोस्त हैं।”

अंत में हमने उनसे पूछा कि क्या वे कभी हार मानने की सोचते हैं? अनिल ने मुस्कुराते हुए जवाब दिया,

“कभी-कभी लगता है कि छोड़ दूँ, पर तभी पापा की आवाज़ कानों में गूँजती है—‘तू बस मेहनत करता रह, एक दिन ज़रूर सफल होगा।’ बस, वही आवाज़ मुझे फिर से उठ खड़ा कर देती है।”

‘दैनिक सदभावना पाती’ की यह पहल सिर्फ सफल छात्रों की नहीं, बल्कि उन गुमनाम योद्धाओं की भी है, जो संघर्ष की राह में आगे बढ़ रहे हैं। अनिल जैसे छात्र हमें यह सिखाते हैं कि सच्चा संघर्ष कभी बेकार नहीं जाता।

 

Share This Article