डॉ. दिलीप वागेला
पेड़
तुम कटते हो-
कौन रोता है?
काटता है ‘वह’,
जो तुम्हें नहीं बोता है!
बोने वाला तुम्हें
‘कल’ के लिए छोड़ देता;
किन्तु ‘वह’ बीते हुए ‘कल’ के
नेक इरादों को
एक झटके में तोड़ देता!!
जन्म से मरणोपरांत त्याग करते
तुममें आता नहीं मलाल;
और इंसान,
वह तो मरने तक
बुनता है स्वार्थ का जाल!
पेड़, तुम्हारा दिल तो
बहुत बड़ा है;
उसमें इंसान के
ईर्ष्यालु कानून का पन्ना
अभी नहीं जुड़ा है!!
वरना संहारक का
हवा-हुक्का
तुम्हारे समाज द्वारा
बन्द कर दिया जाता
और उस निर्दयी का जीते-जी
अंत कर दिया जाता!
पर मैं जानता हूँ,
तुम कदापि
ऐसा कृत्य नहीं करोगे;
और अपने बैरी को
सदा उपकृत ही करोगे।