लेखक- हरनाम सिंह
मानवीय संवेदना को किसी सीमा में नहीं बांधा जा सकता। इसी के चलते एक मलयाली लेखिका बंगाल की पीड़ा पर कहानी लिखती है और उसी कहानी का नाट्य रूपांतरण हिंदी भाषी मध्यप्रदेश के इंदौर में दर्शकों को अंदर तक भिगो देता है।
एकल नाट्य प्रस्तुति के माध्यम से भारतीय जन नाट्य संघ (इप्टा) इंदौर इकाई ने स्वतंत्रता के 75 वर्षों के उपलक्ष में “धीरेंद्र मजूमदार की मां” का मंचन किया गया।
जया मेहता व विनीत तिवारी के निर्देशन में वरिष्ठ अभिनेत्री फ्लोरा बोस के भावप्रण अभिनय और उनके द्वारा उठाए गए सवालों ने दर्शकों को विचार करने पर विवश कर दिया कि वैश्विक युग में आखिरकार व्यक्ति की पहचान इतनी सीमित क्यों की जा रही है ?
ललिताम्बिका अंतर्जन्म की कहानी का हिंदी अनुवाद किया विनीत तिवारी ने जिस पर आधारित नाटक में बताया गया कि औपनिवेशिक गुलामी से आजादी के लिए चले जन संग्राम का परिणाम देश विभाजन के रूप में सामने आया।
जिन लोगों ने आजादी की यह लड़ाई लड़ी थी वह लड़ाई अंग्रेजों के राज्य की समाप्ति के लिए थी ना कि देश के विभाजन के लिए। लेकिन ऐसे अनेक स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों को देश के बंटवारे का दंश सहना पड़ा जो विभाजन के जिम्मेदार नहीं थे।
ऐसे ही लोगों में से एक धीरेंद्र मजूमदार की मां शांति मजूमदार भी थी। वह मां जिसकी 9 संतानों में से चार ने अंग्रेजों से हुई लड़ाई में अपनी शहादत दी थी और बाकी चार ने पाकिस्तान की तानाशाह सरकार से लड़ते हुए अपनी जान गंवाई थी।
1970 के दशक में लिखी कहानी में बताया गया कि बंगाल में जो लोग अंग्रेजों के जुल्म और शोषण का शिकार बने थे वे ही पुनः पूर्वी बंगालवासी पश्चिम पाकिस्तानी शासकों के अत्याचार सहने पर विवश हुए।
कालांतर में शेख मुजीबुर रहमान के नेतृत्व में मुक्ति संग्राम के माध्यम से बांग्लादेश का उदय हुआ। संघर्षों से उत्पन्न परिणामों और दो अत्याचारी शासकों से पीड़ित लोगों द्वारा उठाए गए कई सवाल वर्तमान में नए स्वरूप में हमारे सामने पहचान के संकट के रूप में खड़े हैं।
90 वर्ष की शांति मजूमदार का जन्म पूर्वी बंगाल में हुआ था। जमींदार घराने की सख्त पर्दे में रहने वाली शांति मजूमदार 9 वर्ष की आयु में विवाह कर हवेली में प्रवेश हुई थी। 50 वर्षों तक वह कभी भी घर से बाहर तक नहीं निकली थी।
औपनिवेशिक आजादी की लड़ाई में पति राय बहादुर एवं विद्रोही संतानों के मध्य कर्तव्य और संघर्ष की दुविधा में फंसी शांति के संघर्ष की कथा तब नया मोड़ लेती है जब वह अपने ही घर में योगिनी के रूप में रह रहे क्रांति नायक सूर्यसेन से पद्मा नदी के किनारे मिलती है।
यहीं पर अनंतपुर में रहने वाली शांति मजूमदार का बंग माता के रूप में नया जन्म होता है। यह मां विस्फोट में मारे गए पुत्र की मृत्यु पर वंदे मातरम गीत गाती है, क्योंकि उसने अपने बेटे से ऐसा ही वादा किया था।
शांति मजूमदार स्वतंत्रता सेनानियों की मदद करती है। उन्हें प्रेरणा देती है। आखिरकार लंबे संघर्ष के बाद धर्म के आधार पर देश का विभाजन हुआ और सांप्रदायिक दंगे भड़क उठे। शांति गांधी जी के साथ नोआखली में हिंसा की आग को बुझाने में सक्रिय रही थी।
पश्चिम पाकिस्तान से जारी मुक्ति संग्राम के दौरान मुक्ति वाहिनी के सिपाही उन्हें भारत लाए और भारत में वह शरणार्थी कहलाई। यहीं से सवाल उठा कि क्या शांति मजूमदार भारत में स्वतंत्रता संग्राम सेनानी है ? शरणार्थी है ? स्वदेशी है ? या विदेशी है ? यही सवाल इस कहानी को भारत के नागरिकता रजिस्टर से जोड़ता है। एनआरसी विरोधी आंदोलन के द्वार खोलता है।
नाटक में नागरिकता का सवाल क्षेत्रीयता के रूप में भी सामने आता है, जब देश की आर्थिक राजधानी मुंबई में बिहार, उत्तर प्रदेश, बंगाल के नागरिकों से पक्षपात होता है।
गैर मराठा पहचान के नाम पर उन्हें उत्पीड़ित किया जाता है। विकास नाम पर आदिवासियों के विस्थापन तक यह बात जा पहुंचती है। नाटक का समापन समूह गीत से होता है कि ” जिंदगी ने एक दिन कहा तुम उठो…तुम उठो…
नाटक के प्रारंभ में जया मेहता और विनीत तिवारी ने कहा कि स्वतंत्रता के 75 वर्षों में आजादी की लड़ाई को और उसके सेनानियों को याद करने की जरूरत है, ताकि वर्तमान की समस्याओं के स्त्रोत को समझा जा सके।
नाटक प्रस्तुति में बड़े पर्दे पर अनेक संदर्भित फिल्मों के टुकड़ों ने कहानी को आगे बढ़ाने में सहायता की। यहां सूत्रधार के रूप में विनीत तिवारी ने भी कहानी के कलेवर को अपनी टिप्पणियों से आसान बनाया।
एकल अभिनय आसान नहीं होता। वह समूह अभिनय से भी अधिक जटिल होता है। कथ्य को प्रारंभ से पूर्णता के साथ आगे ले जाने की जिम्मेदारी एक ही कलाकार की होती है। एकल नाट्य कलाकार को अभिनय के साथ लंबे संवाद भी बोलना होते हैं।
धाराप्रवाह भावपूर्ण संवाद अदायगी के साथ फ्लोरा बोस मां के अंतर्द्वंद्व को प्रदर्शित करने में सफल रही। जया मेगता के निर्देशन में गखरी राजनीतिक समझ और कलात्मकता का तालमेल साफ़ दिखता है।
नाटक मंचन पर अनेक सुधि श्रोताओं- दर्शकों ने अपने विचार रखे। अनूपपुर, उज्जैन, आदिवासी अंचल के ग्राम शुक्रवासा से भी नाटक देखने के लिए अनेक दर्शक पहुंचे थे। राजेंद्र माथुर सभागृह में क्षमता से अधिक दर्शकों ने अपनी उपस्थिति दर्ज कराई।