- भोपाल, इंदौर और जबलपुर जैसे शहरों में यह समस्या सबसे गंभीर है। ताजा आंकड़ों के अनुसार, मध्य प्रदेश में करीब 40 प्रतिशत रेरा-पंजीकृत प्रोजेक्ट दो वर्ष से अधिक देरी का सामना कर रहे हैं। यह स्थिति न केवल खरीदारों के विश्वास को कमजोर कर रही है, बल्कि रेरा की प्रभावशीलता और पारदर्शिता पर भी सवाल खड़े कर रही है।
- रेरा पोर्टल के आंकड़ों से यह भी स्पष्ट है कि 2017 से पंजीकृत कई प्रोजेक्ट्स अब भी अधूरे दिखाए जा रहे हैं। इंदौर में ही लगभग 200 प्रोजेक्ट्स ऐसे हैं जिनकी मंजूरी या अपडेट रेरा पोर्टल पर लंबित है।
डॉ देवेंद्र मालवीय
भोपाल/इंदौर। मध्य प्रदेश रियल एस्टेट नियामक प्राधिकरण (एमपी रेरा) की आधिकारिक वेबसाइट पर आज भी सैकड़ों ऐसे प्रोजेक्ट दर्ज हैं जो वर्ष 2017-2018 में पंजीकृत हुए थे, लेकिन अक्टूबर 2025 तक ‘ऑनगोइंग’ की स्थिति में अटके हुए दिखाई दे रहे हैं। रेरा अधिनियम 2016 के तहत किसी भी प्रोजेक्ट को पंजीकरण के तीन वर्ष के भीतर पूरा किया जाना अनिवार्य है, जबकि महामारी या प्राकृतिक आपदा जैसी स्थिति में केवल एक वर्ष का अतिरिक्त समय दिया जा सकता है। कोविड-19 के दौरान केंद्र सरकार ने सभी राज्यों को छह महीने का विस्तार दिया था, लेकिन सात वर्ष बीत जाने के बाद भी प्रदेश में अनेक प्रोजेक्ट अधूरे पड़े हैं, जिससे हजारों खरीदारों को आर्थिक और मानसिक नुकसान उठाना पड़ रहा है।
भोपाल, इंदौर और जबलपुर जैसे शहरों में यह समस्या सबसे गंभीर है। ताजा आंकड़ों के अनुसार, मध्य प्रदेश में करीब 40 प्रतिशत रेरा-पंजीकृत प्रोजेक्ट दो वर्ष से अधिक देरी का सामना कर रहे हैं। यह स्थिति न केवल खरीदारों के विश्वास को कमजोर कर रही है, बल्कि रेरा की प्रभावशीलता और पारदर्शिता पर भी सवाल खड़े कर रही है।
रेरा अधिनियम का उद्देश्य डेवलपर्स की जवाबदेही तय करना और खरीदारों को समय पर कब्जा दिलाना था। विकास अनुमति से जुड़े नियम भी काफ़ी सख्त हैं। मध्य प्रदेश भू-विकास नियमावली 2012 और नगर पालिका (कॉलोनी विकास) नियम 2021 के तहत डेवलपर को प्रोजेक्ट के लिए भूमि उपयोग परिवर्तन, पर्यावरण स्वीकृति और इंफ्रास्ट्रक्चर की अनुमति लेनी होती है। इसके बावजूद, कई डेवलपर्स बिना पूरी मंजूरी के ही बुकिंग शुरू कर देते हैं और बाद में प्रोजेक्ट अधूरे रह जाते हैं।
रेरा अधिनियम की धारा 6 के अनुसार, देरी पर केवल लिखित आवेदन के बाद ही समयवृद्धि दी जा सकती है, जबकि प्रमाणित देरी पाए जाने पर डेवलपर पर प्रोजेक्ट लागत का 10 प्रतिशत तक जुर्माना और खरीदारों को 10.5 प्रतिशत ब्याज के साथ मुआवजा देना अनिवार्य है। इसके अलावा, मध्य प्रदेश रेरा नियम 2017 की धारा 35 के तहत गैर-अनुपालन पर चक्रवृद्धि ब्याज के साथ जुर्माना लगाया जा सकता है। मगर हकीकत यह है कि प्रवर्तन की कमी से ये नियम केवल कागज़ों तक सीमित रह गए हैं।
राज्य में कॉलोनी डेवलपमेंट से जुड़े कोलोनाइजर लाइसेंस के नियम भी कठोर हैं। कॉलोनी विकास के लिए लाइसेंस ‘कॉलोनाइजर रजिस्ट्रेशन एंड ऑनलाइन प्रोसेस सिस्टम’ (CROPS) पोर्टल से जारी होता है, और डेवलपर को सड़क, बिजली, जल निकासी जैसी मूलभूत सुविधाएं पांच वर्षों में पूरी करनी होती हैं। लेकिन कई प्रोजेक्ट्स में न तो यह विकास कार्य पूरे हुए हैं और न ही रेरा पोर्टल पर सही स्थिति दर्ज की गई है।
रेरा पोर्टल के आंकड़ों से यह भी स्पष्ट है कि 2017 से पंजीकृत कई प्रोजेक्ट्स अब भी अधूरे दिखाए जा रहे हैं। इंदौर में ही लगभग 200 प्रोजेक्ट्स ऐसे हैं जिनकी मंजूरी या अपडेट रेरा पोर्टल पर लंबित है।
मध्य प्रदेश सरकार ने पारदर्शिता बढ़ाने के लिए रेरा और क्रॉप्स पोर्टल को जोड़ने की पहल की थी, परंतु तकनीकी और प्रशासनिक देरी के कारण यह व्यवस्था अभी तक पूर्ण रूप से लागू नहीं हो पाई। परिणामस्वरूप, भ्रष्टाचार और फाइलों में हेराफेरी की गुंजाइश बनी हुई है।
कुल मिलाकर, रेरा का औचित्य तब तक अधूरा रहेगा जब तक नियमों का सख्ती से पालन न हो। कोविड जैसी अप्रत्याशित परिस्थितियों को छोड़कर सात वर्षों की देरी किसी भी दृष्टि से उचित नहीं कही जा सकती। अब समय आ गया है कि सरकार रेरा को और अधिक सशक्त बनाकर उसे रीयल-टाइम मॉनिटरिंग, डिजिटल ट्रैकिंग और ऑनलाइन ऑडिट सिस्टम से जोड़े, ताकि खरीदारों का विश्वास बहाल हो सके। अन्यथा, रेरा कानून केवल एक कागज़ी शेर बनकर रह जाएगा — जो न तो खरीदारों की रक्षा कर पाएगा और न ही रियल एस्टेट सेक्टर में पारदर्शिता ला सकेगा।

