लेखक- प्रमोद भार्गव
धर्म, संवेदना, संस्कृति और राजनीति एक ऐसे सम्यक रूप में प्रस्तुत किए जा सकते हैं कि देखने-सुनने वाले भी आष्चर्यचकित रह जाएं ? जी हां ! कुछ यही करिष्मा भोपाल में उस समय परिदृष्य में छा गया, जब मध्य-प्रदेष के मुख्यमंत्री षिवराज सिंह चैहान के व्यक्तित्व और कृतित्व पर केंद्रित ग्रंथ ‘विलक्षण जननायक‘ का विमोचन समारोहपूर्वक संपन्न हुआ।
अभिनंदन ग्रंथ की तर्ज पर तैयार इस पुस्तक का विमोचन जूना पीठाधीष्वर आचार्य महामण्डलेष्वर स्वामी अवधेषानंद गिरि जी ने भोपाल की पुरानी विधानसभा के भव्य सभागार में किया था।
षिवराज सिंह स्वयं मुख्य अतिथि की आसंदी पर विराजमान थे। विषिश्ठ अतिथि भारतीय जनता पार्टी के सह संगठन मंत्री षिवप्रकाष थे।
इस ग्रंथ के प्रकल्प की परिकल्पना राश्ट्रीय स्वयं संघ के समाचार-पत्र ‘स्वदेष‘ (ग्वालियर) की थी। इसीलिए इस प्रसंग का विशय ‘भारतीय राजनीति में सेवा, संवेदना और संस्कृति‘ रखा गया था।
लेकिन समारोह में इस विशय की व्यापक विलक्षण्ता केवल मुख्यमंत्री षिवराज के व्यक्तित्व व कृतित्व में समेट दी गईं। एक तरह से कहा जा सकता है कि संघ और स्वदेष का यह मिला-जुला आयोजन षिवराज के राजनीतिक व्यक्तित्व और कार्य-संस्कृति में सेवा और संस्कृति जैसे उदात्त तत्वों को स्थापित करना था।
जिससे स्थापित हो कि उपरोक्त विशयों के परिप्रेक्ष्य में षिवराज सिंह की मूल्यानुगत राजनीति को एक नया फलक मिले। इस नाते इस पुस्तक के संपादकीय दायित्व से जुड़े अतुल तारे, गिरिष उपाध्याय, डाॅ अजय खेमरिया और सुरेष हिंदुस्तानी सफल रहे हैं।
स्तुतिगान से जुड़े करीब 140 लेख इसमें संग्रहीत हैं। अजय खेमरिया के वाक्चातुर्य से उन सुप्रसिद्ध लेखक व पत्रकारों से भी षिवराज की महिमा का गुणगान करा लिया गया, जो संघ या भाजपा की विपरीत विचारधारा के अलंबरदार रहे हैं।
इनमें वामपंथी, कांग्रेसी और गांधीवादी भी हैं। पुस्तक को देख व पढ़कर लगता है कि सत्ता के प्रभाव में वैचारिक मतांतरण होने लग गया है।
अकसर ऐसे एकपक्षीय वैचारिकता से जुड़े ग्रंथ उन साहित्य मनीशियों और आचार्यों के देखने में आते रहे हैं, जिनकी सेवाएं दीर्घकालिक सेवाएं रही होती हैं।
हालांकि षिवराज सिंह भी सत्रह साल से मुख्यमंत्री हैं। उनकी लाडली लक्ष्मी योजना सुरक्षा एवं करूणा की ऐसी थाती बन गई है कि कन्या जन्म के साथ ही ‘लक्ष्मी‘ रूप में अवतार मानी जाने लगी है।
फलतः योजना ने लगभग देषव्यापी विस्तार भी पा लिया है। मुंहबोली चाची के ताने से जमीन पर उतारी गई ‘कन्या विवाह योजना‘ के संदर्भ में षिवराज ने मंच से बताया, ‘एक सामूहिक विवाह सम्मेलन में जब अतिथि के आने में देर हो रही थी तो समय काटने के लिए मुझे उद्बोधन देने हेतु बुला लिया।
मैंने मौके की नजाकत को समझा और बोलना षुरू किया कि स्त्री-पुरुश समान हैं, भेदभाव नहीं होना चाहिए। यह सुनते ही मेरी मुंहबोली चाची बीच में बोल पड़ीं, बेटी आ गई तो क्या विवाह की जिम्मेदारी तू उठाएगा ?
बस बात कान में घुसी तो दिमाग में समा गई। मुख्यमंत्री बना तो योजना लागू भी कर दी। आज प्रदेष में 41 लाख से अधिक लाडली लक्ष्मी हैं। नारी सषक्तीकरण केवल ध्वजवाहक योजना से संभव नहीं था, अतएव राजनीतिक सषक्तीकरण की दृश्टि से स्थानीय निकायों में 50 प्रतिषत आरक्षण दे दिया।‘ भारतीय समाज में ताना गाली का पर्याय होती है, लेकिन षिवराज ने अपनी सकारात्मक सोच के चलते ताने को स्त्री सषक्तीकरण में बदल दिया।
लाडली के कल्याण, कन्या के विवाह और स्त्री सषक्तीकरण की महिमा का बखान गं्रथ के लेखों में भी बहुतायत है। कन्याओं को पालने और उन्हें षिक्षित कर परिण्य बंधन में बांधने का काम मुख्यमंत्री की पत्नी साधना सिंह भी रुचि लेकर करती रही हैं।
जातीय भेद और वर्ग-संघर्श की जिन समस्याओं के समाधान वामपंथी माक्र्स के वैचारिक दर्षन में तलाषते हैं, ऐसी समस्याओं के निदान षिवराज ने नादान उम्र में अपनी प्रगतिषील सोच और हठधार्मिता के चलते ढूंढ लिए थे।
अपने आत्म-विवेचन में षिवराज ने बताया ‘हमारे जैत गांव में ग्रामीणों के चंदे से अखंड रामायण का पाठ होता था। एक साल इसी दौरान अनुसूचित जाति के मलुआ दादा के घर बेटी का जन्म हुआ।
जब चंदा जुटाया जा रहा था, तब मलुआ दादा ने भी पुत्री पैदा होने की खुषी में दो रुपए चंदे में दिए। लेकिन गांव में जब ऊंची जाति के लोगों को इस चंदे का पता चला तो वे भड़क गए, कि मलुआ के पैसे से रामायण नहीं होगी, जो खर्च होगा हम ही उठाएंगे। लेकिन मैं अड़ गया मलुआ दादा छोटी जाति से हुए तो क्या हुआ, उनका पूरा सम्मान रखा जाएगा और उनके द्वारा दिए चंदे का इस्तेमाल पाठ में होगा।
मेरी जिद के आगे विरोधी ढीले पड़ गए और फिर छोटी जाति के लोगों का मंदिरों में आना-जाना भी षुरू हो गया।‘ इस कथन ने संदेष दिया कि मनुश्य होने के इन्हीं तथ्यों, सत्यों, करूणा और संवेदना के ईंट-गारे से ही जैसे षिवराज का विलक्षण व्यक्तित्व गढ़ा एवं परवान चढ़ा।
विशय को सर्थकता देते हुए स्वामी अवधेषानंद गिरी ने संघ, स्वदेष और षिवराज को सेवा, संवेदना और संस्कृति से जोड़ते हुए कहा, ‘संघ का कार्य ईष्वरीय कर्म है। बीते कुछ सालों में विदेषों में सनातन हिंदू धर्म की स्वीकार्यता और मान्यता बढ़ी है, यह स्थिति संकेत देती है कि आने वाली षताब्दी भारतवर्श की है।
काषी और अयोध्या की गतिविधियों को किसी मंदिर तक सीमित न रखकर राश्ट्र निर्माण और राश्ट्र के पुनरुत्थान के रूप में देखा जाना चाहिए। मध्य-प्रदेष की षिवराज सरकार द्वारा ओंकारेष्वर में जगद्गुरू षंकराचार्य की 108 फीट ऊंची प्रतिमा स्थापना का प्रकल्प ऐतिहासिक है। यह समूचे संसार के धर्मावलंबियों के लिए एक विलक्षण आस्था स्थल गढ़ने जैसा है।‘
स्वामी जी ने आगे कहा कि ‘ईष्वर की विद्यमानता परमार्थ षब्द से ही परिभाशित होती है और ईष्वर को पाने का मार्ग सेवा है। हमारे यहां कहा गया है कि ‘परहित सरस धरम नहीं भाई।‘ जो सेवा के इस धर्म को स्वीकार लेता है, उसकी व्याप्ति अनंत हो जाती है। जो व्यक्ति इच्छा और आकांक्षा को त्याग देता है, वह संस्था और संगठन बन जाता है। अतएव षिवराज राजनीति के माध्यम से जिस सेवा में लीन हैं, वही धर्म है। दीनदयाल उपाध्याय ने अंत्योदय की कहीं, षिवराज आज उसे ही साकार रूप में बदल रहे हैं।‘ मसलन षिवराज की कार्य संस्कृति में धर्म, सेवा और संघ एकाकार हैं।
भाजपा के राश्ट्रीय सह-संगठन मंत्री षिवप्रकाष बोले, ‘पाष्चात्य राजनीतिक चिंतन कल्याणकारी राज्य की बात करता है। भारत में कुछ लोग बहुजन हित की बात करते हैं। परंतु मूल भारतीय चिंतन सर्वजन हिताय की बात करता है, जो लोकजीवन की अवधारणा पर आधृत है। आज भारत बदलते परिदृष्य का साक्षी बन रहा है। इसलिए राजनीति में सेवा, संवेदना और संस्कृति की बात करना संभव हुई है। भारतीय जीवन दृश्टि कहती है कि इस चराचर जगत में एक ही परम सत्ता है और एक ही चेतना सब में अनुस्यूत है। मेरा सुख-दुख सबका सुख-दुख है। स्वयं में दूसरे का अनुभव करना एकत्व का भाव है। इसी एकतत्व भाव के प्रतिरूप षिवराज सिंह चैहान हैं।
मध्य-प्रदेष के दीर्घकालिक अतीत में न तो इस तरह से किसी एक मुख्यमंत्री के व्यक्तित्व व कृतित्व पर केंद्रित कोई पुस्तक आई और न यह संभव हुआ कि मीडिया और संगठन मिलकर मुख्यमंत्री का महिमामंडन करते। जबकि भाजपा में सुंदरलाल पटवा, कैलाष जोषी, उमा भारती और बाबूलाल गौर मुख्यमंत्री रह चुके हैं। कांग्रेस में भी यह फहरिष्त लंबी है। ष्यामाचरण षुक्ल, अर्जुन सिंह, दिग्विजय सिंह और कमलनाथ के कालखंड में राजनीति और संस्कृति की यह परिचर्चा हो सकती थी, लेकिन तब धर्म का तब राजनीति की संस्कृति में अछूता था।
कांग्रेस ही मुख्यमंत्री को हिंदूवादी घोशित करते हुए धर्मनिरपेक्ष संविधान का विरोधी घोशित कर देती। क्योंकि तब धर्मनिरपेक्ष लोकतंत्र में जातीय व धार्मिक चेतना का गौरव-गान असंभव था। जबकि लोक जीवन में व्यक्ति धर्म और संस्कृति से अभिप्रेरित होकर सक्रिय रहते हैं। व्यश्टि से समश्टि का यही पवित्र मार्ग है। धर्म हमारे आचरण को जहां हमें अनुषासित व मर्यादित बनाता है, वहीं संस्कृति षुश्क संवेदन-तंत्र को हरियाती रहती है। इस नाते यह ग्रंथ और आयोजन एक बड़ी उपलब्धि हैं।
लेकिन पूरे आयोजन के पीछे एक नियोजित मंषा कांग्रेस से आए ज्योतिरादित्य सिंधिया का प्रभाव भी बढ़ना रहा है। संघ और भाजपा में प्रभावषील मराठा लाॅबी उन्हें और आगे ले जाना चाहती है। सो किताब के जरिए यह गौरव गाथा जताती है कि धर्म और संस्कृतिनिश्ठ षिवराज ही मध्य-प्रदेष में एक ऐसे नेता है, जो वास्तव में सेवा, संवेदना और संस्कृति के पर्याय बने रहकर, लोक-कल्याणकारी राजनीति का ईमानदारी से निर्वहन कर रहे हैं। यही निर्विवाद सत्य हैं।