GNM में बायोलॉजी अनिवार्यता: न्याय का विकल्प नहीं हो सकता अन्याय

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हजारों विद्यार्थियों के सपनों पर पड़ा न्यायिक निर्णय का ताला

डॉ देवेंद्र मालवीय
 संपादकीय
इंदौर. जबलपुर उच्च न्यायालय द्वारा 11 जुलाई 2025 को GNM (जनरल नर्सिंग एंड मिडवाइफरी) कोर्स में प्रवेश के लिए 12वीं में बायोलॉजी विषय को अनिवार्य मानने का निर्णय, एक ऐसे समय में आया है जब राज्य में प्रशिक्षित नर्सिंग स्टाफ की भारी कमी है, और स्वास्थ्य सेवाओं की रीढ़ कही जाने वाली यह व्यवस्था पहले ही असंतुलन से जूझ रही है। यह निर्णय भले ही कानून के दायरे में विवेकाधीन प्रतीत होता हो, परंतु इसके सामाजिक, शैक्षिक और व्यावसायिक प्रभाव गहरे और चिंताजनक हैं। यह फैसला न केवल हज़ारों छात्रों की संभावनाओं को कुचलता है, बल्कि नर्सिंग जैसे संवेदनशील और सेवा प्रधान क्षेत्र को कमजोर करने की आशंका भी पैदा करता है।
उच्च न्यायालय ने यह निर्णय एक याचिका की सुनवाई करते हुए अपने स्वविवेक से दिया, और MMR को तर्क का आधार बनाते हुए मध्यप्रदेश शासन के निर्णय को जायज़ ठहराया। लेकिन यह तर्क संकीर्ण, अव्यावहारिक और तात्कालिक प्रतीत होता है। क्या मातृ मृत्यु दर केवल इस कारण ऊंची है कि नर्सिंग छात्राओं ने 12वीं में बायोलॉजी नहीं पढ़ी? यदि ऐसा होता तो देश के अन्य राज्यों—जैसे केरल, तमिलनाडु, महाराष्ट्र, कर्नाटक—में, जहाँ GNM में आर्ट्स व कॉमर्स के छात्र भी आते हैं, वहां की स्वास्थ्य सेवाएं बदहाल होतीं। लेकिन आंकड़े इसके उलट हैं। MMR जैसे जटिल सार्वजनिक स्वास्थ्य मुद्दे का समाधान एक प्रवेश योग्यता बदलने से नहीं, बल्कि स्वास्थ्य तंत्र की ज़मीनी मजबूती, स्टाफिंग, इंफ्रास्ट्रक्चर, और सामुदायिक स्वास्थ्य जागरूकता से होता है। विडम्बना यह है कि सरकार अपनी नाकामी का ठीकरा नर्सिंग कॉलेजों और छात्रों के माथे फोड़ रही है।
GNM एक व्यावसायिक डिप्लोमा है, जो तीन वर्षों में छात्राओं को गहन सैद्धांतिक व व्यावहारिक प्रशिक्षण देता है—जिसमें एनाटॉमी, फिजियोलॉजी, मिडवाइफरी, पीडियाट्रिक्स, कम्युनिटी हेल्थ आदि विषय सम्मिलित हैं। ऐसे में यह मानना कि सिर्फ बायोलॉजी पढ़ना ही किसी को बेहतर नर्स बना देगा, शिक्षा और प्रशिक्षण की पूरी प्रणाली को नज़रअंदाज़ करना है।

इस निर्णय का सीधा प्रभाव ग्रामीण, पिछड़े व आर्थिक रूप से कमज़ोर वर्ग की छात्राओं पर पड़ेगा। भारत में लाखों छात्र-छात्राएं संसाधनों की कमी या स्कूलों में बायोलॉजी की अनुपलब्धता के चलते यह विषय नहीं चुन पाते, किंतु उनमें नर्सिंग जैसी सेवा-प्रधान पेशे के लिए अदम्य लगन होती है। अब उन्हें GNM के द्वार से बाहर कर देना, समान अवसर के अधिकार और सामाजिक न्याय के उस मूल सिद्धांत के विपरीत है, जिसे हमारी न्यायिक और शासकीय प्रणाली संरक्षित करने की शपथ लेती है।

यह भी आश्चर्यजनक है कि GNM, जो कि एक डिप्लोमा कोर्स है, उसमें बायोलॉजी को अनिवार्य कर दिया गया है, जबकि अन्य पेशेवर क्षेत्रों जैसे इंजीनियरिंग (पॉलिटेक्निक डिप्लोमा), फार्मेसी आदि में डिप्लोमा और डिग्री दोनों अलग-अलग प्रवेश योग्यताओं के साथ चलते हैं। डिप्लोमा की मूल अवधारणा ही यह है कि वह ऐसे छात्रों के लिए द्वार खोलता है जो कम विषयगत पृष्ठभूमि से आते हैं लेकिन व्यावहारिक रूप से दक्ष बनना चाहते हैं। अब जब GNM और B.Sc नर्सिंग दोनों के लिए एक जैसी शैक्षणिक योग्यता कर दी गई है, तो एक बायोलॉजी छात्र क्यों डिप्लोमा में प्रवेश लेगा? परिणामस्वरूप, GNM की सीटें खाली रहेंगी और प्रशिक्षित नर्सिंग स्टाफ की मांग और आपूर्ति के बीच की खाई और चौड़ी हो जाएगी।

राजस्थान, केरल, कर्नाटक से आने वाले नर्सिंग छात्रों का क्या होगा?

एक और महत्वपूर्ण प्रश्न यह उठता है कि यदि मध्यप्रदेश में GNM के लिए बायोलॉजी अनिवार्य है, तो क्या राजस्थान, केरल, कर्नाटक जैसे राज्यों से बिना बायोलॉजी के नर्सिंग कोर्स करके आए छात्रों को मध्यप्रदेश सरकार नौकरी देगी? क्या यह राज्यीय भेदभाव नहीं होगा? यदि दूसरे राज्यों की GNM डिग्री को मान्यता मिलती है, तो मध्यप्रदेश के छात्रों को वही अवसर क्यों नहीं मिलना चाहिए? यह विरोधाभास न केवल शैक्षिक असमानता को जन्म देता है, बल्कि यह देश की एकीकृत शिक्षा नीति की भावना के भी विरुद्ध है।

इस निर्णय में सबसे दुर्भाग्यपूर्ण पहलू यह है कि न तो ब्रिज कोर्स, और न ही इंट्रोडक्टरी बायोलॉजी मॉड्यूल जैसे व्यावहारिक समाधान अपनाए गए। इंडियन नर्सिंग काउंसिल (INC) ने GNM में किसी भी स्ट्रीम से 12वीं पास छात्रों को प्रवेश देने की अनुमति दी है, और उसी नीति के अनुसार कोर्स तैयार भी किया गया है। फिर राज्य सरकार द्वारा नियम में बदलाव और न्यायालय द्वारा उसे स्वीकृति देना, नीति के विकेंद्रीकरण और अकादमिक स्वायत्तता पर भी प्रश्न खड़े करता है।

कोर्ट के इस फैसले ने एक नीतिगत भूल को न्यायिक वैधता तो प्रदान कर दी, लेकिन इससे वह न्याय प्रसारित नहीं हुआ जिसकी अपेक्षा नागरिक समाज करता है। यह निर्णय—जो कानून की संकीर्ण व्याख्या और प्रशासनिक तर्कों पर आधारित है—मूलभूत यथार्थों, सामाजिक पृष्ठभूमियों और शिक्षा की समावेशिता को दरकिनार कर देता है।

GNM में बायोलॉजी अनिवार्य करने का फैसला स्किल इंडिया मिशन के “सबका साथ, सबका विकास” सिद्धांत का उल्लंघन करता है। यह ग्रामीण और गैर-बायोलॉजी छात्रों को नर्सिंग जैसे रोजगारपरक कौशल से वंचित करता है, जिससे स्वास्थ्य सेवा में स्टाफ की कमी बढ़ेगी। यह सोच स्किल इंडिया के लचीले और समावेशी दृष्टिकोण के खिलाफ है।

नर्सिंग स्टाफ की कमी: असली संकट

मध्यप्रदेश पहले से ही प्रशिक्षित नर्सिंग स्टाफ की भारी कमी से जूझ रहा है। ऐसे में GNM में प्रवेश की शर्तें कठोर बनाकर सरकार ने खुद ही उस सप्लाई चैन को काट दिया है जिससे स्वास्थ्य सेवाओं की रीढ़ मजबूत होती। वर्ष 2024-25 के सत्र में पूरे राज्य में GNM की लगभग 8000 सीटें उपलब्ध थीं, परंतु बायोलॉजी अनिवार्यता के कारण मात्र 169 सीटें ही भर पाईं—यह आंकड़ा किसी चेतावनी से कम नहीं। जब राज्य को प्रशिक्षित स्वास्थ्यकर्मियों की अत्यधिक आवश्यकता है, ऐसे समय में प्रवेश को सीमित करना नीतिगत विफलता है।

सरकार और न्यायपालिका दोनों से अपेक्षा की जाती है कि वे ऐसे निर्णयों पर पुनर्विचार करें जो प्रतिभाशाली व सेवाभावी युवाओं के अवसरों को बाधित करते हैं। स्वास्थ्य सेवा को सुदृढ़ करना है तो मूलभूत संरचना, प्रशिक्षकों की गुणवत्ता, कार्यस्थल पर अनुभव और आधुनिक ट्रेनिंग प्रणाली पर ध्यान दिया जाए—न कि विषयों पर प्रारंभिक सीमाएँ बनाकर।

न्यायालय से विनम्र प्रार्थना है कि वह प्रस्तुत तथ्यों एवं व्यावहारिक परिस्थितियों पर पुनः विचार करते हुए न्यायिक समीक्षा करें, जिससे न्याय के मूल सिद्धांत—समान अवसर, समावेशिता और सामाजिक न्याय—की पुनः स्थापना हो सके।

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