मान्यता का खेल: अधिकारियों की साजिश में फंसे शिक्षण संस्थान

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"दैनिक सदभावना पाती" (Dainik Sadbhawna Paati) (भारत सरकार के समाचार पत्रों के पंजीयक – RNI में पंजीकृत, Reg. No. 2013/54381) "दैनिक सदभावना पाती" सिर्फ एक समाचार...
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देवेंद्र मालवीय (संपादकीय)

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“तरबूज चाकू पर गिरे या चाकू तरबूज पर, कटना तरबूज को ही है” – यह कहावत आज के भारतीय शिक्षण संस्थानों और उनके संचालकों की स्थिति पर पूरी तरह लागू होती है। भ्रष्टाचार का चाकू अधिकारियों के हाथ में है, और कटने वाला तरबूज है शिक्षण संस्थानों के संचालक। आए दिन समाचार पत्रों में खबरें छपती हैं – “फलां कॉलेज में सीबीआई की रेड”, “फलां संचालक रिश्वत देते पकड़ा गया”, या “फलां संस्थान पर भ्रष्टाचार के आरोप”। लेकिन सवाल यह है कि आखिर कोई कॉलेज संचालक रिश्वत क्यों देता है? क्या वह खुशी-खुशी रिश्वत देता है? जवाब साफ है – रिश्वत कभी खुशी से नहीं दी जाती, बल्कि यह डर, मजबूरी और अधिकारियों की प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष मांगों का परिणाम है। यह लेख शिक्षण संस्थानों के संचालकों की मजबूरियों को उजागर करता है और भ्रष्ट अधिकारियों की मनमानी को निशाना बनाता है, जो इस सिस्टम को जकड़े हुए हैं।

रिश्वत: मजबूरी या सिस्टम की साजिश?

कोई भी कॉलेज संचालक यह नहीं चाहता कि उसका संस्थान बंद हो जाए या उसकी सामाजिक प्रतिष्ठा धूमिल हो। फिर भी, रिश्वत देने की मजबूरी क्यों आती है? इसका जवाब हमारे सिस्टम की जटिलता और भ्रष्टाचार में छिपा है। नियम इतने कठिन और अस्पष्ट हैं कि किसी भी संस्थान का सौ प्रतिशत नियमों का पालन करना लगभग असंभव है। निरीक्षण के दौरान अधिकारी इन नियमों को अपने हिसाब से तोड़-मरोड़कर संस्थानों पर दबाव बनाते हैं। छोटे से लाइसेंस से लेकर बड़े शिक्षण संस्थान की मान्यता तक, हर कदम पर “शुभ-लाभ” की मांग की जाती है। यदि संचालक इसका विरोध करता है, तो उसे धमकियां, निरीक्षण में जानबूझकर खामियां निकालने, और संस्थान बंद करने की धमकी दी जाती है। ऐसी स्थिति में संचालक के पास रिश्वत देने के अलावा कोई रास्ता नहीं बचता।

उदाहरण के लिए, हाल ही में मध्य प्रदेश में हुए नर्सिंग कॉलेज घोटाले को लें। इस मामले में सीबीआई के एक टीम ने कुछ कॉलेज संचालकों सीबीआई की पहली टीम को रिश्वत देते हुए पकड़ा, लेकिन सवाल यह है कि क्या ये संचालक अपनी मर्जी से रिश्वत दे रहे थे? जांच में सामने आया कि नर्सिंग कॉलेजों को मान्यता देने के लिए सीबीआई के अधिकारियों ने भारी रकम की मांग की थी। जब संचालकों ने इसका विरोध किया, तो उनके संस्थानों को बंद करने की धमकी दी गई। मजबूरी में कई संचालकों ने रिश्वत दी, लेकिन जब मामला उजागर हुआ, तो सारा दोष संचालकों पर मढ़ दिया गया, जबकि नर्सिंग काउंसिलिंग एवं अन्य भ्रष्ट अधिकारियों को बचाने की कोशिश की गई। यहाँ भी तरबूजा संचालकों का सिर ही बना।

छात्रवृत्ति घोटाला: अधिकारियों का बचाव, संचालकों की सजा

सत्र 2014 में छात्रवृत्ति घोटाले का मामला भी ऐसा ही था मध्यप्रदेश में लोकायुक्त पुलिस ने कई कॉलेजों की जांच की और छात्रवृत्ति घोटाले का पर्दाफाश किया। लेकिन इस जांच में भी यही देखा गया कि असली दोषी – भ्रष्ट अधिकारी – बच निकले, और सारा ठीकरा कॉलेज संचालकों पर फोड़ दिया गया। क्या यह संभव है कि इतने बड़े घोटाले में अधिकारी बिना रिश्वत लिए शामिल न हों? फिर भी, जांच का सारा फोकस संचालकों पर रहा, और अधिकारियों की भूमिका को नजरअंदाज कर दिया गया। यह सिस्टम की उस सच्चाई को उजागर करता है, जहां छोटे-मोटे कर्मचारी और संचालक तो पकड़े जाते हैं, लेकिन बड़े अधिकारी अक्सर बच निकलते हैं।

काउंसिलों का भ्रष्टाचार: हर लेवल पर, हर टेबल पर “रिश्वत”

चाहे वह नेशनल मेडिकल काउंसिल (NMC) हो, नेशनल काउंसिल फॉर टीचर एजुकेशन (NCTE) हो, ऑल इंडिया काउंसिल फॉर टेक्निकल एजुकेशन (AICTE) हो, या फार्मेसी काउंसिल ऑफ इंडिया, हर जगह भ्रष्टाचार का बोलबाला है। हाल ही में फार्मेसी काउंसिल के एक वरिष्ठ अधिकारी पर सीबीआई ने प्रकरण दर्ज किया है। यह कोई नई बात नहीं है। इन काउंसिलों में मान्यता, निरीक्षण, या लाइसेंस के लिए रिश्वत की मांग एक आम प्रथा बन चुकी है। सवाल यह है कि क्या ये काउंसिल अपने भ्रष्ट अधिकारियों पर खुद कार्रवाई नहीं कर सकतीं? अगर सीबीआई अपने भ्रष्ट अधिकारियों को पकड़ सकती है, जैसा कि कई मामलों में हुआ, तो अन्य काउंसिलें अपनी जिम्मेदारी क्यों नहीं निभातीं? क्या इन काउंसिलों में नैतिकता और जवाबदेही का कोई स्थान नहीं है?

सिस्टम की साजिश: संचालक क्यों बनते हैं बलि का बकरा?

संचालकों की मजबूरी का एक बड़ा कारण यह भी है कि सिस्टम में भ्रष्टाचार की जड़ें बहुत गहरी हैं। मंत्रियों, अधिकारियों, और कर्मचारियों का एक ऐसा तंत्र है, जो मिलकर संस्थानों को रिश्वत देने के लिए मजबूर करता है। बड़े पदों पर भ्रष्ट अधिकारियों की नियुक्ति बिना मंत्रियों की सेटिंग के संभव नहीं है। फिर भी, जब घोटाले उजागर होते हैं, तो सारा दोष कॉलेज संचालकों पर डाल दिया जाता है। उनकी सामाजिक प्रतिष्ठा नष्ट होती है, उनका व्यवसाय खतरे में पड़ता है, और कई बार वे बर्बादी की कगार पर पहुंच जाते हैं। दूसरी ओर, भ्रष्ट अधिकारी और काउंसिलें अपनी जिम्मेदारी से बच निकलती हैं।

संचालकों की बेहाली: भ्रष्टाचार की चौतरफा मार

रिश्वतखोरी का मामला हो या कोई अन्य जटिलता, सबसे ज्यादा नुकसान कॉलेज संचालकों का ही होता है। भ्रष्टाचार के आरोपों के बाद उनकी सामाजिक प्रतिष्ठा धूमिल हो जाती है, बाजार में इज्जत मिट्टी में मिलती है, और दाखिले कम होने से संस्थान की आय ठप हो जाती है। छात्रवृत्ति रुकने, बैंक लोन बंद होने और आर्थिक तंगी के कारण संचालक की स्थिति इतनी दयनीय हो जाती है कि उसे दोबारा खड़ा होने में वर्षों लग जाते हैं। दूसरी ओर, भ्रष्ट अधिकारी एक संचालक को निपटाने के बाद नए शिकार की तलाश में जुट जाते हैं, और यह भ्रष्टाचार का खेल अनवरत चलता रहता है।

मीडिया की दोहरी भूमिका

मीडिया भी इस सिस्टम का गहरा हिस्सा है। एक ओर, मीडिया संस्थान कॉलेज संचालकों की कमियों को ढकने के लिए लाखों रुपये के पैकेज लेकर अवॉर्ड फंक्शन आयोजित करते हैं या विज्ञापन के नाम पर पैसा वसूलते हैंऔर उस समय संरक्षण का आशवासन देते हैं। लेकिन जब कोई घोटाला उजागर होता है, तो वही मीडिया अपने को निष्पक्ष बताते हुए संचालकों को कठघरे में खड़ा कर देता है। यह दोहरा चरित्र न केवल संचालकों के साथ अन्याय करता है, बल्कि सिस्टम के भ्रष्टाचार को और बढ़ावा देता है।

सिस्टम सुधार की जरूरत

यह साफ है कि रिश्वत का खेल केवल संचालकों की गलती नहीं है। यह एक गहरी साजिश का हिस्सा है, जिसमें भ्रष्ट अधिकारी, काउंसिलें, और सिस्टम की जटिलताएं शामिल हैं। यदि नियमों को सरल किया जाए, निरीक्षण पारदर्शी हों, और भ्रष्ट अधिकारियों पर सख्त कार्रवाई हो, तो शायद रिश्वत की जरूरत ही न पड़े। सीबीआई जैसे संस्थानों ने भले ही कुछ भ्रष्ट अधिकारियों को पकड़ा हो, लेकिन जब तक अन्य काउंसिलें और एजेंसियां अपनी जिम्मेदारी नहीं निभाएंगी, तब तक यह सिलसिला चलता रहेगा।

कॉलेज संचालक, जो शिक्षा के क्षेत्र में योगदान दे रहे हैं, उन्हें इस भ्रष्ट सिस्टम का शिकार बनने से बचाने की जरूरत है। सवाल यह नहीं कि संचालक रिश्वत क्यों देते हैं, सवाल यह है कि सिस्टम उन्हें रिश्वत देने के लिए मजबूर क्यों करता है? जब तक इस सवाल का जवाब नहीं मिलेगा, तब तक “तरबूज” कटता रहेगा, और चाकू चलाने वाले बचते रहेंगे।

होना ये चाहिए –

नियमों को सरल और पारदर्शी बनाया जाए।
निरीक्षण प्रक्रिया में तकनीक का उपयोग कर भ्रष्टाचार को कम किया जाए।
भ्रष्ट अधिकारियों पर सख्त कार्रवाई हो, न कि केवल संचालकों को निशाना बनाया जाए।
काउंसिलों और एजेंसियों को अपनी नैतिक जिम्मेदारी निभाने के लिए जवाबदेह बनाया जाए।

 

यह लेख न केवल कॉलेज संचालकों की मजबूरियों को सामने लाता है, बल्कि सिस्टम की खामियों को भी उजागर करता है, जो भ्रष्टाचार को बढ़ावा देता है। अब समय है कि इस सिस्टम को सुधारने के लिए ठोस कदम उठाए जाएं।

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