डॉ. दिलीप वागेला
इंसान को चढ़ गई है ऐसी मस्ती,
मिटाने पर तुला है पेड़ों की हस्ती।
जान की कीमत हो गई सस्ती,
कैसे पार होगी जीवन की कश्ती।।
हरियाली को काटकर बसा रहा शहर,
भूल गया है त्याग प्रकृति का हर प्रहर।
पानी, हवा, मिट्टी सब पर ढा रहा कहर,
जीवन की धारा में भी घुल रहा जहर।
पेड़ लगाओ, जीवन बचाओ,
प्रकृति की रक्षा के लिए सब साथ आओ।
हर एक कदम पर सोचो, ध्यान धरो,
जीवन की कश्ती मिल-जुलकर पार लगाओ।