जब प्यार की जगह शक और रिश्तों की जगह साजिश ले ले — तब क्या बचेगा समाज में?

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लेखक: डॉ. प्रियंश मालवीय

वो रिश्ता जिसे सात जन्मों तक निभाने की कसमें खाई जाती हैं…
जहाँ दो दिल मिलकर जीवन की हर मुश्किल को आसान बनाने का वादा करते हैं…
वही रिश्ता, अगर एक दिन हत्या, धोखा और भय का कारण बन जाए तो समाज की नींव ही डगमगाने लगती है।

शादी: अब प्रेम नहीं, डर की प्रक्रिया?
हम एक ऐसे समय में पहुँच चुके हैं जहाँ विवाह — जो कभी जीवन की सबसे पवित्र और प्रिय संस्था मानी जाती थी — अब कई बार स्वार्थ, शक और षड्यंत्र की शिकार होती जा रही है। बॉलीवुड में जो एक समय महज़ स्क्रिप्ट हुआ करती थी — जैसे प्रेमी के साथ मिलकर पति की हत्या या शादी को ज़हर बनाना — वह आज वास्तविकता में घटित हो रहा है।

कुछ चौंकाने वाले सत्य घटनाएँ:
इंदौर: राजा रघुवंशी हत्याकांड
मेरठ: नीले ड्रम में छुपाई गई लाश
बिजनौर: पत्नी ने प्रेमी संग रची साजिश
लुधियाना: शव को जलाकर पहचान मिटाई गई
भोपाल: पत्नी ने पति की हत्या “स्वतंत्रता में हस्तक्षेप” मानकर कर दी

इन घटनाओं ने समाज में यह प्रश्न खड़ा कर दिया है कि — “क्या विवाह अब एक विश्वसनीय संस्था रह गई है?”
लड़कों की चिंताएँ — डर, केस और कब्र तक की कल्पना
आज का युवा पुरुष शादी के नाम पर सिर्फ सात फेरे नहीं देखता, वह केस, कस्टडी, मानसिक उत्पीड़न और चरित्र हनन तक की आशंका लेकर चलता है।

उनकी प्रमुख शंकाएँ:
क्या वह लड़की सिर्फ पैसों के लिए शादी कर रही है?
अगर वह मुझ पर झूठे केस कर दे तो?
क्या मेरे परिवार को बस इस्तेमाल कर छोड़ देगी?
कई युवाओं का कहना है: “शादी नहीं करूंगा, अकेले रहूंगा, लेकिन कम से कम ज़िंदा तो रहूंगा…”
यह कोई मज़ाक नहीं, एक सामाजिक त्रासदी है।

पर क्या सारी गलतियाँ लड़कियों की हैं? नहीं।

जहाँ कुछ महिलाएं विवाह की पवित्रता को कलंकित कर रही हैं, वहीं लाखों महिलाएँ आज भी अपने सपनों, करियर और स्वतंत्रता की बलि देकर एक परिवार को संजो रही हैं।

लड़कियों की प्रमुख पीड़ाएँ:

मानसिक और शारीरिक उत्पीड़न
अपने सपनों और करियर की बलि
“अच्छी बहू” की सामाजिक परिभाषा में घुटना
ससुराल से उपेक्षा और तानों की मार
पढ़ाई बीच में रुकवाकर घर संभालने की ज़बरदस्ती
कई बार उनकी चुप्पी, चीख से भी ज्यादा गूंजती है — लेकिन कोई सुनने वाला नहीं।

तो शादी अब समझौता और डर क्यों बन गई है?
क्योंकि:
संवाद की कमी है
सहनशीलता घट रही है
सोशल मीडिया और मोबाइल ने गोपनीयता की सीमाएं मिटा दी हैं
समाज ने “साथ रहना” तो सिखाया लेकिन “साथ निभाना” नहीं सिखाया
मूल समस्या: सामाजिक ढांचे की जड़ता और संवाद का अभाव
भारतीय समाज की रूढ़िवादी सोच —
“शादी एक बार होती है”
“लड़की को समायोजित होना ही होगा”
“लड़का कमाए, लड़की घर संभाले” —
यही सोच आज भी कई रिश्तों को जंजीरों में जकड़ रही है।
जब ये जंजीरें किसी की आज़ादी या सपनों से टकराती हैं, तब:
रिश्तों में विश्वास टूटता है
संबंध निभाए जाते हैं, बनाए नहीं जाते
और कई बार ये नफरत और हिंसा में बदल जाते हैं
क्या अब शादी का सपना देखना गुनाह है? नहीं, लेकिन सोच बदलनी होगी।

समाधान क्या हैं?
1. शादी से पहले खुला संवाद हो — अपेक्षाओं, सीमाओं और सपनों पर
2. कानून संतुलित और निष्पक्ष हों — जिससे झूठे केस भी रुकें और असली पीड़ितों को न्याय मिले
3. Emotional Education अनिवार्य हो — जिससे लोग पहले “अच्छे इंसान” बनें, फिर पति या पत्नी
4. सामाजिक सोच का सुधार हो — दोनों पक्षों को बराबरी और सम्मान मिले

निष्कर्ष:
शादी सिर्फ दो लोगों का रिश्ता नहीं, दो आत्माओं, दो परिवारों और दो संस्कृतियों का मिलन है।
अगर उसमें झूठ, लालच और साजिश का ज़हर घुल जाए, तो सिर्फ दो लोग नहीं, पूरा समाज विषाक्त हो जाता है।
अब समय है कि हम रिश्तों को फिर से भरोसे से भरें,
शादी को फिर से प्रेम और समझदारी से सजाएँ,
और ऐसा समाज बनाएँ जहाँ लड़कियाँ डरकर ससुराल न जाएँ और लड़के डरकर शादी से भागें नहीं।

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