आओ, फिर हरियाली बोएं

Rajendra Singh
By
Rajendra Singh
पर्यावरण संरक्षण एवं जैविक खेती के प्रति प्रशिक्षण
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✍️ रचना: अखिलेश जैन “अखिल”

न सुना कहानियां पतझड़ की,
अब बहारों की बात कर

बीत गई जो बतियाँ,
रीते कुएं, सूने पनघट,
वो पुराना आम,
वो बरगद चौपाल पर…

आ उगा अब कुछ नया अपने आस पास, छोड़ दे सुनाना वो पुराना राग…

बो दे वो गुठली प्रेम से
जो खाई थी कल,
उठ, बहा दे झरना वो कलकल…

लगा कुछ कलम, छोड़ दे हिसाब,
आ मैदान में जरा, छोड़ कर लैपटॉप…

कहानियां पीढ़ियां सुनाएंगी,
गीत हवाएं गाएंगी,

फिर ढूंढेंगे छांह पथिक,
और तितलियां मंडराएंगी…

बिजली के खंभे की जगह
पेड़ पर कौवे का घोंसला होगा,

गौरैया फिर आएगी अब की बार,
बसेगा उसका भी घर-संसार…

बनाना एक रील
खिलते हुए फूल की,
उड़ती तितलियों और
भरी हुई झील की…

कि मौसम बदलते, देर नहीं लगती,
खुशियां लांघने मुंडेर नहीं लगती…

आयेंगे फिर नए अंकुर उस पुराने पेड़ पर,
कूकेगी कोयल खुशी में
फिर नई एक टेर पर…

पुनर्नवा की पुकार है यह –
आओ, फिर वृक्षों से यारी निभाएं…

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