(लेखक- ओमप्रकाश मेहता)
आजादी के बाद शायद पहली बार आज भारत एक अजीब दौर से गुजरने को मजबूर है, जहां एक सियासी दल कथित तौर पर देश में मिट्टी का तेल छिड़क रहा है, तो दूसरा दल चिंगारी खोज रहा है, आखिर ऐसी स्थिति में इस देश का भविष्य क्या होगा?
यह अहम चिंता आज देश के ‘‘कर्णधारों’’ को नहीं बल्कि आम देशवासी की है, जो अपने जीवन यापन सहित कई अन्य समस्याओं से जूझ रहा है, आज की सियासत जहां धर्म का सहारा लेकर अगले पच्चीस साल तक सत्ता मेें बने रहने का सुनहरा ख्वाब देख रही है, वहीं इसी घिनौनी सियासत के कुछ स्वार्थी शोले पूरे देश को साम्प्रदायिकता के दावानल में पूरे देश को झोंकने की कोशिश कर रहे हैं आखिर इस देश का ऐसे में भविष्य क्या होगा?
आज देश में धर्मान्धता इतनी अधिक हावी हो गई है कि अब देश के हर मंदिर-मस्जिद को शक की नजर से देखा जाने लगा है और हर सियासी नेता मंदिर-मस्जिद में जाकर ‘‘पुरातत्व शास्त्री’’ बनने की कोशिश कर अपना स्वार्थ सिद्ध करना चाह रहा है। उसे हर मंदिर- मस्जिद में छद्म धर्म नजर आने लगा है, जिसके सहारे वह अपनी सियासी स्वार्थ सिद्धी करना चाहता है।
यहाँ यह उल्लेखनीय है कि दो दशक पहले अयोध्या-बाबरी मस्जिद के चलते भी सियासत इतनी हावी नहीं हो पाई थी, जितनी की आज ज्ञानवापी के मुद्दें पर हावी हो रही है, अभी तो आगे मथुरा तथा अन्य आराध्य स्थालों पर भी सियासी नजर है, यही नहीं यह सिलसिला कहां जाकर थमेगा?
इसका उत्तर भी किसी के भी पास नहीं है, क्योंकि अभी तो यह सिलसिला उत्तर प्रदेश में ही पूरा नहीं हो पा रहा है, मध्यप्रदेश व अन्य प्रदेशों के धार्मिक स्थलों की बारी कब आएगी, कुछ भी नहीं कहा जा सकता, जबकि आज से इकत्तीस साल पहले 1991 में संसद द्वारा पारित ‘‘पूजा कानून’’ ने सिर्फ अयोध्या प्रसंग को ही इस कानून की बाध्यता से छूट दी थी बाकी तो किसी भी विवाद को इस कानून के दायरे से बाहर नहीं रखा था, जिससे ज्ञानवापी, मथुरा आदि सभी शामिल है, किंतु उस कानून को लागू करके उसके तहत कार्यवाही करने वाली सरकार ही कुछ नहीं कर उसमें अपनी सियासत देख रही हो तो, इसे क्या कहा जाए? फिर देश का रक्षक कौन?
आज इक्कत्तीस साल पहले (1991) में संसद ने जो कानून पारित किया था, उसमें कहा गया था कि देश के स्वतंत्रता दिवस अर्थात् पन्द्रह अगस्त 1947 के बाद देश की किसी भी धार्मिक पुरातात्विक धरोहर के साथ किसी भी तरह की छेड़छाड़ नहीं की जाएगी, न ही उसे विवाद का मुद्दा ही बनाया जाएगा और यदि किसी ने इस दिशा में कोई प्रयास किया तो उसे उक्त कानून के तहत दण्डित किया जाएगा, अब यह तो सही है कि उस कानून की ज्ञानवापी की आड़ में धज्जियां तो उड़ाई जा रही है, किंतु ऐसे दोषियों को दण्डित कौन करें? जब दण्ड देने वाला ही इस अपराध के दोषियों में शामिल हो? इसीलिए इस मसले पर पूरा देश चिंतित और परेशान है।
….और यह भी सही है कि अभी इस सिलसिले को नहीं रोका गया तो यह सिलसिला कहाँ-कहाँ तक पहुंचेगा, इसकी फिलहाल कल्पना भी मुश्किल है? शायद देश का कोई भी प्रमुख सियासी या धार्मिक शहर इससे वंचित नहीं रह पाएगा? फिर क्या होगा? क्या इसी माहौल के साये में हम हमारी आजादी की ‘‘पचहत्तरवीं’’ (हीरक) जयंती मनाएंगे?
इसके साथ ही सबसे बड़ी चिंता का विषय यह है कि इस सियासी व मजहबी छूत के रोग को रोकने का अब तक किसी ने भी प्रयास नहीं किया, उल्टे इसके विस्तारण की दिशा में ही प्रयास किये गये है?
जबकि देश पर शासनारूढ़ राजनीतिक दल व उसके सियासतदारों को यह करना चाहिये? ऐसे माहौल को लेकर यदि कोई एकमात्र सर्वाधिक चिंतित वर्ग है तो वह देश का आम नागरिक है, जिसे अपने साथ देश की भी चिंता है।
अब यही हर किसी की समझ से बाहर है कि मिट्टी का तेल छिड़के इस देश को चिंगारी से कैसे बचाया जाए? और यह पुनीत कार्य करे कौन?