(लेखिका- निर्मल रानी)
विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र होने के नाते यहाँ ‘लोकतान्त्रिक’ तरीक़े से होने वाले आम चुनाव हमेशा ही पूरे विश्व के लिये कौतूहल का विषय होते हैं। समय समय पर इस विराट एवं अद्भुत चुनावी प्रक्रिया को क़रीब से देखने व समझने के लिये विदेशों से भी वहां के संसदीय प्रतिनिधिमंडल तथा अंर्तराष्ट्रीय चुनावी विशेषज्ञ आते रहते हैं। परन्तु सवाल यह उठता है कि क्या हमारे देश के शत प्रतिशत मतदाता वास्तव अपने अपने मताधिकार का प्रयोग पूरी स्वतंत्रता व स्वविवेक के साथ करते हैं ? क्या भारतीय मतदाताओं का एक बड़ा अर्थात निर्णयकारी वर्ग वास्तव में जनसमस्याओं, देश की प्रगति, विकास, सड़क, बिजली, पानी, उद्योग, रोज़गार, स्वास्थ्य, मंहगाई जैसे मुद्दों को सामने रखकर ही मतदान करता है ? और यदि जनता स्वविवेक से मतदान करती है, उसपर किसी तरह का धर्म-जाति-पंडित-गुरु-अथवा मौलवी के फ़तवों का प्रभाव नहीं होता फिर आख़िर देश की संसद व विधानसभाओं में सांप्रदायिक, अपराधी, जातिवादी, निठल्ले, अशिक्षित, भ्र्ष्ट, स्वार्थी, विचारविहीन, व लुटेरी प्रवृति के लोग विभिन्न सदनों में कैसे पहुँच जाते हैं?
सिंगापुर के प्रधानमंत्री ली सियन लूंग ने गत 15 फ़रवरी को सिंगापुर की संसद में एक टिप्पणी की। ली सियन लूंग ने कहा था कि ‘नेहरू का भारत अब ऐसा बन गया है, जहां मीडिया रिपोर्ट्स के अनुसार लोकसभा के आधे से अधिक सांसदों के विरुद्ध बलात्कार, हत्या जैसे आरोपों सहित अनेक आपराधिक मामले लंबित हैं। हालांकि यह भी कहा जाता है कि इसमें से कई आरोप राजनीति से प्रेरित हैं.’। ली सियन लूंग ने इज़राईल में चल रही राजनैतिक अस्थिरता का भी ज़िक्र किया। उनके द्वारा इज़राइली नेता वे डेविड बेन-गुरियन व भारत के जवाहरलाल नेहरू का ज़िक्र समयानुसार राजनीति व राजनेताओं के तुलनात्मक स्तर के सन्दर्भ में किया गया था। इसमें कोई शक नहीं कि विश्व के अधिकांश देश उच्च आदर्शों और महान मूल्यों के आधार पर स्वतंत्र अथवा स्थापित हुए हैं। ऐसे में राजनीति के वर्तमान विश्व स्तरीय पतन काल पर किसी भी संवेदनशील व्यक्ति विशेषकर गंभीर राजनेताओं का चिंतित होना स्वाभाविक है। हालाँकि भारतीय विदेश मंत्रालय ने सिंगापुर के प्रधानमंत्री के इस बयान के बाद दिल्ली में सिंगापुर के उच्चायुक्त साइमन वॉन्ग को बुलाया और ली सियन लूंग के उपरोक्त वक्तव्य पर आपत्ति व असहमति जताते हुये कहा कि भारत के संबंध में ली सीन लूंग का यह बयान को ”ग़ैर-ज़रूरी” और ”अस्वीकार्य” है।
परन्तु क्या भारतवासियों के लिये यह सोचना व चिंतन करना ज़रूरी नहीं कि विदेशी नेताओं को आख़िर भारत की वर्तमान राजनैतिक दुर्दशा पर ऊँगली क्योंकर उठानी पड़ती है? किसी कड़वे सच को अस्वीकार करने के बजाये क्या हमें आत्म चिंतन व आत्मावलोकन करने की ज़रुरत नहीं ? क्या सिंगापुर के प्रधानमंत्री ने जो भी कहा वह पूरी तरह तथ्यहीन है ? क्या विदेश मंत्रालय के ”ग़ैर-ज़रूरी” और ”अस्वीकार्य”कह देने मात्र से हमारे देश के अपराधी व अपराधों के आरोपी राजनेताओं की छवि उज्जवल हो जायेगी ? क्या इससे ज़्यादा ज़रूरी यह नहीं कि हम इस बात को लेकर आत्ममंथन करें कि हम कैसे अपनी इस ‘कलंकपूर्ण ‘ चुनाव व्यवस्था को रोकने के लिये सख़्त क़दम उठायें ? क्या मंदिर – मस्जिद, हिन्दू-मुसलमान, धर्म जाति, ऊंच नीच, क्षेत्र, भाषा, गाय, लव जिहाद, हिजाब, वन्देमातरम, क़ब्रिस्तान, शमशान, जिन्ना, औरंगज़ेब जैसे मुद्दों को आगे रखकर लड़े जाने वाले चुनाव व इन्हीं मुद्दों को गरमा व भ्रमा कर चुनाव जीतने वाले जनप्रतिनिधियों से हमें यह उम्मीद करनी चाहिये कि वे जनसरोकारों से जुड़े मुद्दों पर भी काम करेंगे ? राजनेताओं के भाषण भी ऐसे होने लगे हैं गोया वे अपने राजनैतिक प्रतिद्वंदी को अपना व्यक्तिगत दुश्मन मानने लगे हों। कोई किसी को आतंकवादी बता रहा है तो कोई चुनाव के बाद ‘गर्मी निकालने ‘ की धमकी दे रहा है। कोई बुलडोज़र चलाने की बातें कर रहा है। कोई पाकिस्तान भेज रहा है तो कोई बंगाल, कश्मीर व केरल से तुलना कर सांप्रदायिकता का भ्रमपूर्ण भय पैदा कर रहा है।
परन्तु क्या भारतवासियों के लिये यह सोचना व चिंतन करना ज़रूरी नहीं कि विदेशी नेताओं को आख़िर भारत की वर्तमान राजनैतिक दुर्दशा पर ऊँगली क्योंकर उठानी पड़ती है? किसी कड़वे सच को अस्वीकार करने के बजाये क्या हमें आत्म चिंतन व आत्मावलोकन करने की ज़रुरत नहीं ? क्या सिंगापुर के प्रधानमंत्री ने जो भी कहा वह पूरी तरह तथ्यहीन है ? क्या विदेश मंत्रालय के ”ग़ैर-ज़रूरी” और ”अस्वीकार्य”कह देने मात्र से हमारे देश के अपराधी व अपराधों के आरोपी राजनेताओं की छवि उज्जवल हो जायेगी ? क्या इससे ज़्यादा ज़रूरी यह नहीं कि हम इस बात को लेकर आत्ममंथन करें कि हम कैसे अपनी इस ‘कलंकपूर्ण ‘ चुनाव व्यवस्था को रोकने के लिये सख़्त क़दम उठायें ? क्या मंदिर – मस्जिद, हिन्दू-मुसलमान, धर्म जाति, ऊंच नीच, क्षेत्र, भाषा, गाय, लव जिहाद, हिजाब, वन्देमातरम, क़ब्रिस्तान, शमशान, जिन्ना, औरंगज़ेब जैसे मुद्दों को आगे रखकर लड़े जाने वाले चुनाव व इन्हीं मुद्दों को गरमा व भ्रमा कर चुनाव जीतने वाले जनप्रतिनिधियों से हमें यह उम्मीद करनी चाहिये कि वे जनसरोकारों से जुड़े मुद्दों पर भी काम करेंगे ? राजनेताओं के भाषण भी ऐसे होने लगे हैं गोया वे अपने राजनैतिक प्रतिद्वंदी को अपना व्यक्तिगत दुश्मन मानने लगे हों। कोई किसी को आतंकवादी बता रहा है तो कोई चुनाव के बाद ‘गर्मी निकालने ‘ की धमकी दे रहा है। कोई बुलडोज़र चलाने की बातें कर रहा है। कोई पाकिस्तान भेज रहा है तो कोई बंगाल, कश्मीर व केरल से तुलना कर सांप्रदायिकता का भ्रमपूर्ण भय पैदा कर रहा है।
हमारे देश में विभिन्न धर्मों व जातियों में तथाकथित राजनैतिक धर्मगुरुओं की भी भरमार है। इनमें तमाम ऐसे हैं जो सत्ता के क़रीब भी रहना चाहते हैं और सत्ता से लाभ भी उठाना चाहते हैं और उठाते रहते हैं। प्रायः देखा गया है कि यह धर्म गुरु अपने अनुयायियों को निर्देश अथवा फ़तवे जारी करते रहते हैं। इनके निर्देश अथवा फ़तवे आम तौर पर इस बात से प्रेरित होते हैं कि किसी धर्मगुरु के साथ सत्ता अथवा धर्मगुरु द्वारा समर्थन दिये जा रहे दल का व्यवहार कैसा है। इस स्थिति में इन ‘स्वयंभू अध्यात्मवादियों’ का सीधा संबंध राजनीति से स्थापित हो जाता है। और इनकी कोशिश होती है कि इनके अनुयायी इनके निर्देश व फ़तवे के अनुसार ही मतदान करें। गोया किसी धर्मगुरु के लाखों करोड़ों अनुयायी अपने गुरु अथवा मौलवी मौलाना के दिशानिर्देश पाते ही अपना स्वविवेक ताख़ पर रखकर अपने बहुमूल्य मताधिकार को गोया गिरवी रख देते हैं। ऐसी स्थिति में जीतने वाला प्रत्याशी अपराधी है, सांप्रदायिक, जातिवादी अथवा भ्रष्ट है यह बातें कोई मायने नहीं रखतीं।
आज अनेक धर्मगुरु बेलगाम होकर जो मुंह में आये वह बोलते फिर रहे हैं। उनके मुंह से अमृतवाणी निकलने के बजाये विषवमन होता रहता है। यह अपने अनुयायियों को चरित्र निर्माण या रोज़गार अथवा आत्मनिर्भरता के उपाय या इसपर आधारित प्रवचन नहीं देते बल्कि उन्हें धर्म विशेष के विरुद्ध हथियार उठाने के लिये उकसाते फिरते हैं। गृह युद्ध छेड़ने के लिये प्रेरित करते हैं। ऐसे ही धर्मगुरु सार्वजनिक मंचों से उस महात्मा गांधी को गालियां देते व अपमानित करते हैं जिसकी सत्य-अहिंसा-शांति व सर्वधर्म समभाव की नीति के समक्ष दुनिया नतमस्तक होती है। क्या राजनेता तो क्या धर्माधिकारी इनका एक बड़ा समूह इनदिनों अपने ज़हरीले शब्दों, अनैतिक दिशानिर्देशों व फ़तवों के चलते भारतीय राजनीति के चेहरे को कुरूपित कर रहा है। ऐसे लोग जनसरोकारों की बातें करने के बजाये मतदाताओं को कभी ‘गर्व ‘, कभी ‘स्वाभिमान ‘, कभी ‘सम्मान ‘, कभी राष्ट्रवाद तो कभी ‘अस्तित्व ‘ बेचने लगते हैं। और हमारे देश के भोले भाले मतदाता आसानी से ऐसे पाखंडी राजनेताओं व स्वार्थी स्वयंभू धर्मगुरुओं की बातों के झांसे में आ जाते हैं। यह अथवा ऐसी स्थितियां इस निष्कर्ष पर पहुँचने के लिये पर्याप्त हैं कि हमारे देश में राजनीतिक स्तर में गिरावट के मुख्य कारण क्या हैं और क्यों हमारे देश को लेकर विदेशों में अब नकारात्मक चर्चायें होने लगी हैं ? हमें मुंह छुपाने की नहीं बल्कि दर्पण देखकर आत्मावलोकन करने की ज़रुरत है। इतना ही नहीं बल्कि जहाँ हमें स्वविवेक से अपने मताधिकार का इस्तेमाल करने की ज़रुरत है वहीँ अनुयाईयों को भ्रमित करने वाले धर्मगुरुओं के स्वार्थपूर्ण ‘राजनैतिक फ़तवों’ से भी सचेत रहने की ज़रुरत है। भारतीय मतदाताओं की जागरूकता व उनका जनसरोकारों के मद्देनज़र किया जाने वाला विवेकपूर्ण मतदान ही देश की दिशा व दशा को भी बदल सकता है साथ ही भारत की गिरती जा रही राजनैतिक साख से भी बचा सकता है।