कांग्रेस की राह पर चल भाजपा लाखों कार्यकर्ताओं की उम्मीदों से कर रही है खेल
देवेंद्र मालवीय
(प्रधान संपादक सदभावना पाती)
बीजेपी के महापौर प्रत्याशी के लिए इंदौर में इस तरह की भारी मशक्कत पहली बार देखने में आ रही है, समय के साथ साथ जैसे भाजपा का ग्राफ बढ़ा है उसी तरह कैंडीडेट्स को लेकर भाजपा की राजनीति उसी राह पर दिखाई देती है जिस राह पर पहले कांग्रेस हुआ करती थीं।
एक समय भाजपा अपने उम्मीदवार पहले ही घोषित कर चुनाव में उतार देती थी और कांग्रेस के उम्मीदवारों के लिए मंथन चलता ही रहता था आज कमोबेश यही स्थिति भाजपा के साथ है ।
इंदौर महापौर के लिए जितने नाम चल रहे हैं, अधिकतर पैराशूट उम्मीदवार है यानी कि *जनता से दूर बड़े नेताओं से निकट* पहले कांग्रेस में भी यही प्रचलन था जो अब बीजेपी में देखने को मिल रहा है, बड़े नेताओं की पसंद जनता और पार्टी के कार्यकर्ताओं पर थोपी जाती थी जिसका परिणाम वर्तमान कांग्रेस की स्थिति को देखकर समझा जा सकता है । हालांकि इस बार कांग्रेस ने संजय शुक्ला को बहुत पहले ही प्रत्याशी घोषित करके उन्हें पूरा मौका दिया है।
डॉक्टर निशांत खरे जनता के बीच आया बिल्कुल नया नाम और नया चेहरा जिसे संघ की पसंद बताया जा रहा है पर संघ की कार्यशैली इस तरह से पूर्व में नहीं देखी गई इसलिए यह कहना गलत ना होगा कि कुछ बड़े हुक्मरानों की पसंद डॉ निशांत खरे हो सकते हैं पूरे संघ की नहीं । सवाल यह उठता है कि डॉ निशांत खरे ना तो जमीनी कार्यकर्ता है और ना ही इंदौर की जमीन से, इस तरह के पैराशूट उम्मीदवार को जनता पर थोपना बीजेपी की राजनीति का हिस्सा कब बन गया यह पता ही ना चला ।
वही बात करें मनोज द्विवेदी या पुष्यमित्र भार्गव की तो इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि दोनो अच्छे अधिवक्ता है पर सामाजिक कितने कार्य किए और कितने कार्यकर्ताओं का लाव-लश्कर उनके साथ है यह जनता जानती है, हर कोर्ट केस की फीस लाखों में लेने वाले इन अधिवक्ताओं को बीजेपी जनता के बीच महापौर के पद पर सुशोभित कर क्या मैसेज देना चाहती है । बीजेपी के इन निर्णय का सामान्य जनमानस और कार्यकर्ताओं पर क्या असर पड़ेगा सत्ताधारियों को इस और ध्यान देने की आवश्यकता है ।
जिस तरह से कांग्रेस जनता की भावनाओं और कार्यकर्ताओं को उपेक्षित कर पैराशूट उम्मीदवारों के दम पर उड़ी और आज खुद पैराशूट बन गई है, बीजेपी इसी राह पर चल नई पार्टी को सत्ता में आने का इनविटेशन दे रही है ।
बात की जाए विधायक रमेश मेंदोला की तो सिर्फ एक शब्द उपयुक्त लगता है *उपेक्षित* यानी कि *जनता की पसंद सत्ता धारियों की नाराजगी* रमेश मेंदोला एकमात्र ऐसा चेहरा है जो अपने काम, कार्यकर्ताओं और मैनेजमेंट के कारण पूरे प्रदेश में सर्वाधिक वोटों से जीतने वाले विधायक हैं, पर सत्ताधारीओं की पसंद ना होने से उपेक्षित कहलाते हैं । पूरे इंदौर के गली मोहल्ले में प्रभाव रखने वाले मेंदोला को आगे ना बढ़ाना संघ की परिपाटी पर उपयुक्त नहीं दिखता ।
फिर कहता हूं कि भाजपा कांग्रेस की राह पर न चले, जनता की पार्टी थी जनता की पार्टी रहे ।