बदलती छवियां, बिगड़ती दिशा

Dr. Gopaldas Nayak
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डॉ. गोपालदास नायक (खंडवा)

एक समय था जब महिलाएं करुणा, सहनशीलता और त्याग की प्रतीक मानी जाती थीं। उनका नाम आते ही ममता, सहारा और सादगी की छवि उभरती थी। वे परिवार की धुरी थीं और समाज की आत्मा। किंतु आज का दृश्य बदल चुका है। समाज एक ऐसे दौर से गुज़र रहा है, जहां महिलाएं अपराध की दुनिया में भी दिखाई देने लगी हैं। यह परिवर्तन केवल आकस्मिक नहीं है, बल्कि एक गहराई से उपजा सामाजिक, तकनीकी और मानसिक बदलाव है, जो अब हमारी आंखों के सामने खुलकर उभर रहा है।

सामाजिक ताने-बाने में आए बदलाव, मोबाइल और इंटरनेट की निर्बाध पहुंच, और मनोरंजन के नाम पर परोसे जा रहे भ्रामक कंटेंट ने नई पीढ़ी की सोच को तेजी से बदल दिया है। आज महिलाएं केवल अपराध का शिकार नहीं रह गईं, वे अपराध की योजना बनाने, उसे अंजाम देने और उसे छुपाने तक की भूमिका में देखी जा रही हैं। यह स्थिति इसलिए और भी चिंताजनक है क्योंकि इसे सामान्यता के चश्मे से देखा जाने लगा है। अपराध अब स्मार्टनेस और साहस का प्रतीक बनता जा रहा है।

टीवी सीरियल्स, वेब सीरीज़ और सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स पर अक्सर ऐसे पात्र दिखाए जाते हैं जो अपराध करते हैं, छल करते हैं, लेकिन दर्शकों की सहानुभूति प्राप्त करते हैं। इन कहानियों में अपराधी पात्रों को इस तरह प्रस्तुत किया जाता है जैसे वे कोई नायक हों। खासतौर पर जब महिला पात्र किसी षड्यंत्र को रचती है और उसे बोल्ड या स्ट्रॉन्ग कहा जाता है, तो यह युवा महिलाओं के मन में एक खतरनाक धारणा बैठा देता है कि नैतिकता और मर्यादा पुरानी चीजें हैं, और आज के जमाने में केवल चतुराई मायने रखती है – चाहे वह अनैतिक ही क्यों न हो।

इन माध्यमों के प्रभाव में आई अनेक महिलाएं अब अपराध को रोमांचक मानने लगी हैं। वे इसे ग्लैमर और आकर्षण से जोड़ने लगी हैं। अपराध के मामलों में महिलाओं की संलिप्तता के आंकड़े यह संकेत दे रहे हैं कि यह समस्या केवल अपवाद नहीं रही, बल्कि यह एक प्रवृत्ति बनती जा रही है। विशेषकर साइबर क्राइम, ऑनलाइन ब्लैकमेलिंग, ठगी, और यौन शोषण जैसे मामलों में महिलाओं की सक्रिय भूमिका सामने आ रही है। यह बदलाव केवल कानूनी नहीं, नैतिक संकट भी है।

बदलती छवियां, बिगड़ती दिशा

जब मोबाइल फोन किसी के लिए शिक्षा और आत्मनिर्भरता का माध्यम हो सकता है, वहीं वही मोबाइल अगर दिशा भटकाए तो वह अपराध का औज़ार बन जाता है। सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स पर फॉलोअर्स की संख्या ही आज चरित्र का पैमाना बन चुकी है। जहां एक लड़की की पहचान उसके विचारों से नहीं, उसकी प्रोफाइल पिक्चर और वायरल वीडियो से होती है। यह बाहरी चमक जब आत्मसम्मान की जगह लेने लगती है, तब कई बार वे रास्ते भी चुने जाते हैं जो समाज और स्वयं दोनों के लिए घातक सिद्ध होते हैं।

यह भी देखा गया है कि आज की युवा पीढ़ी – चाहे वह गांव की हो या शहर की – ग्लैमर और प्रसिद्धि की आकांक्षा में अपनी पहचान खो बैठती है। नैतिकता, शालीनता और संतुलन जैसे शब्द अब पुराने युग की निशानियाँ माने जाते हैं। जब कोई लड़की किसी सीरियल या ओटीटी सीरीज़ में अपराध करती महिला पात्र को आदर्श मानती है, तो वह यह भूल जाती है कि वह एक पटकथा है, जीवन नहीं। लेकिन वास्तविक जीवन में जब वही रास्ता अपनाया जाता है, तो न परिणाम रोमांचक होता है, न सम्मानजनक।

अपराध में महिलाओं की बढ़ती भागीदारी का एक पहलू यह भी है कि कई बार यह आर्थिक दबाव, भावनात्मक शोषण या अकेलेपन के कारण भी होती है। समाज ने महिलाओं को सशक्त तो कहा, परंतु उन्हें आवश्यक मार्गदर्शन और मूल्यनिष्ठ शिक्षा से दूर कर दिया। जब मार्गदर्शन का स्थान सोशल मीडिया ले लेता है, तो सत्य और भ्रम में अंतर करना कठिन हो जाता है। उस स्थिति में किसी भी दिशा में भटकाव संभव है।

बदलती छवियां, बिगड़ती दिशा

समस्या केवल एक पीढ़ी की नहीं है, बल्कि पूरे सामाजिक ढांचे की है। हमें यह स्वीकार करना होगा कि हमने मनोरंजन को मर्यादा से ऊपर रख दिया, और तकनीक को विवेक के बिना थमा दिया। अब समय आ गया है जब इन माध्यमों को सही दिशा देने की आवश्यकता है। सरकार और समाज दोनों को मिलकर ऐसे कंटेंट पर अंकुश लगाना चाहिए जो अपराध को रोमांचक और स्वीकार्य बनाते हैं। टीवी, ओटीटी और सोशल मीडिया पर ऐसे चरित्रों को महिमामंडित करना बंद करना होगा जो नैतिक पतन के प्रतीक हैं।

इसके साथ ही परिवारों को फिर से संवादशील बनाना होगा। अभिभावकों को यह समझना होगा कि मोबाइल देने से पहले नैतिक दिशा देना ज़रूरी है। शिक्षकों को यह सिखाना होगा कि तकनीक का प्रयोग कैसे रचनात्मक बनाया जाए। और समाज को यह सुनिश्चित करना होगा कि महिला सशक्तिकरण का अर्थ केवल स्वतंत्रता नहीं, बल्कि जिम्मेदारी भी है।

अभी समय है कि इस प्रवृत्ति को रोका जाए। अपराध की राह पर बढ़ती महिलाएं केवल कानून की नहीं, बल्कि समाज की चेतावनी हैं। वे यह संकेत हैं कि हमारी व्यवस्था, हमारी संस्कृति और हमारी सोच कहीं न कहीं चूक रही है। हमें इसे सुधारना होगा। महिला सशक्तिकरण तभी सार्थक होगा जब महिलाएं अपने भीतर की शक्ति को सृजन के लिए प्रयोग करें, विध्वंस के लिए नहीं।

यह संकट का समय है, परंतु आशा का भी। अगर हम मिलकर प्रयास करें – मीडिया को जवाबदेह बनाएं, शिक्षा को मूल्यनिष्ठ बनाएं, परिवारों को जागरूक करें – तो यह दौर भी बदलेगा। वह छवि फिर लौटेगी, जहां महिला केवल अपराध की खबर नहीं, बल्कि समाज की प्रेरणा बनेगी। हमें इस दिशा में बढ़ना होगा – आज नहीं तो कभी नहीं।

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I am currently working in Government College Khandwa, I have been doing teaching work for the last several years and also writing work in various genres