वर्ष 2013 में बना कानून, ज़मीनी क्रियान्वयन शून्य, कागजी खानापूर्ति से भर रहे कानून का पेट
- शिक्षण संस्थान, कॉर्पोरेट्स, हॉस्पिटल्स अन्य जगह बेहद मुश्किल है वर्किंग वुमन का रास्ता - करीब 60% महिलाओं सेअपमानजनक भाषा, फिजिकल कॉन्टैक्ट या सेक्शुअल फेवर मांगा जाता है - आंकड़ों में बहुत पीछे हैं स्थानीय समितियां
Indore News in Hindi। इंदौर तेज़ी से मेट्रो सिटी की ओर बढ़ रहा है। यहां नए जमाने के कारोबार, बैंक, कॉल सेंटर, होटल, आईटी कम्पनियां, हॉस्पिटल्स, उच्च शिक्षा के निजी संस्थानों में मेडिकल कॉलेज, नर्सिंग कॉलेज, इंजीनियरिंग कॉलेज और गैर-पेशेवर कोर्स की पेशकश करने वाले कॉलेजों की बहार आ गई है जहाँ लगभग सभी प्रकार के संस्थानों में महिलाएं पुरुष के कंधे से कंधा मिलाकर कार्य कर अपनी जवाबदारियों का निर्वाहन कर रही हैं।
ऐसे में महिलाओं की सुरक्षा समाज के साथ साथ सरकारी विभाग से लेकर निजी कम्पनियों तक में अनिवार्य है। लेकिन ज्यादातर निजी कंपनियों में कार्यस्थल पर महिलाओं के उत्पीड़न की सूचनाएं आती हैं। इन घटनाओं पर लगाम लगाने के लिए संविधान में प्रावधान किया गया है। इस मामले में इंदौर फिसड्डी साबित हो रहा है.
देश में ‘कार्यस्थल पर उत्पीड़न अधिनियम’ 2013 से लागू हुआ जिसमें 2 प्रकार की समितियों को बनाया जाना था। एक समिति हर संस्थान के अन्दर होना है जिसका नाम ‘आन्तरिक परिवाद समिति’ (आईसीसी) और दूसरी जिसको जिला कलेक्टर द्वारा बनाया जाना था जो कि ‘स्थानीय समिति’ (एलसीसी) कहलाएगी।
50 हजार रु. अर्थदंड का प्रावधान, स्थानीय समितियां आंकड़ों में बहुत पीछे
महिलाओं की कार्यस्थल पर होने वाली लैंगिक उत्पीड़न की रोकथाम के लिए बने इस अधिनियम को 9 वर्ष हो चुके हैं। बड़े शहराें में इसको लेकर खासी जागरूकता आई है लेकिन छोटे शहरों में इसमें वृहद स्तर पर कार्य किए जाने की जरूरत है।
सर्वे करने पर पाया गया कि इंदौर में एलसीसी तो बन गई है पर आईसीसी समितियों का गठन लगभग न के बराबर है। ऐसा न करने वाले नियोजकों पर 50 हजार रुपये का अर्थदंड लगाए जाने का प्रावधान है। प्राप्त जानकारी के अनुसार इंदौर में अभी तक मात्र १०० से १५० संस्थानों में ही आईसीसी का गठन हुआ है।
कानून का ज़मीनी क्रियान्वयन शून्य
सभी शासकीय, अर्द्ध शासकीय, निजी कार्यालयों में महिला कर्मचारियों को लैंगिक उत्पीड़न की रोकथाम के बारे में जागरूक किया जाना चाहिए। जिला एवं ब्लाक स्तर पर कमेटियाें के गठन के साथ इसकी नियमित रूप से बैठकाें का आयोजन और समिति के समक्ष इस तरह के मामले आने पर तत्काल निस्तारण करने का प्रयास किया जाना चाहिए।
लेकिन समितियों को शिकायतें न मिलने से निराकरण भी सिफर है। सरकार और स्थानीय प्रशासन इस ओर ध्यान नहीं दे रहे हैं। महिला बाल विकास कोविड के बाद से कोई जागरूकता अभियान या अन्य एक्टिविटी नहीं करवा पाया है। ज़मीनी तौर पर इस कानून का क्रियान्वयन भी शून्य के जैसा है।
यह अधिनियम, महिलाओं के समानता के मौलिक अधिकारों की पुष्टि करता है। अधिकांश संस्थानों में करीब 60% महिलाओं से अपमानजनक भाषा का इस्तेमाल किया जाता है, फिजिकल कॉन्टैक्ट या सेक्शुअल फेवर मांगा जाता है। यह कानून यौन उत्पीड़न की रोकथाम उसके लिए पूरी तरह से खात्मे और शिकायत के निपटाने पर भी जोर देता है।
इसके तहत उन्हें पूरी गरिमा और अधिकार के साथ समाज में रहने, किसी व्यवसाय, व्यापार या कार्य को करने की स्वतंत्रता है, जिसमें भारतीय संविधान के अनुसार, कार्य स्थल का वातावरण पूरी तरह सुरक्षित और यौन शोषण रहित होना भी शामिल है।