(लेखक-सिद्धार्थ शंकर)
रूस और यूक्रेन की जंग को एक माह पूरे होने को हैं। इस अवधि में रूस की यूक्रेन पर कार्रवाई में क्या हासिल हुआ इस पर लंबे समय तक बहस होती रहेगी।
मगर अभी रूस और अमेरिका की दादागिरी में यूक्रेन का जो हाल हो रहा है, वह सभी के लिए सबक है, खासकर छोटे देशों के लिए। यूक्रेन आज लगभग खंडहर जैसा नजर आ रहा है। रही-सही कसर कीव पर टिकी है।
मगर इस भूभाग पर कब्जा जमाने रूस कोई भी पैंतरा आजमाने को तैयार बैठा है। रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन ने अब परमाणु हथियारों वाली कमान को तैयार रहने का निर्देश देकर अपना इरादा साफ कर दिया है कि उन्हें अब किसी का डर नहीं। इससे दुनिया के ज्यादातर देश सकते में हैं।
खासतौर से अमेरिका और यूरोपीय संघ के उन देशों की नींद उडऩा लाजिमी है जो यूक्रेन के साथ खड़े हैं और उसे रूस से मुकाबला करने के लिए हथियार दे रहे हैं। इससे अब यह खतरा पैदा हो गया है कि हालात कब क्या मोड़ ले लें और पुतिन परमाणु हमले का दांव न चल दें।
रूस ने अमेरिका, पश्चिमी देशों तथा नाटो की धमकियों के बाद जिस तरह का आक्रामक रुख अख्तियार किया है, उससे खतरा और बढ़ गया है। जंग शुरू होने से पहले तक तो लग रहा था कि अगर लड़ाई छिड़ भी गई तो ज्यादा दिन तक नहीं चलेगी।
पर रूस के धावा बोल देने के बाद पिछले पांच-छह दिन में हालात जिस तेजी से बिगड़े हैं, उसे देखते हुए कोई भी कयास लगा पाना आसान नहीं है। भले ही यूक्रेन की सैन्य ताकत रूस के मुकाबले कम हो हो, लेकिन उसका मनोबल कहीं ज्यादा बड़ा दिख रहा है।
निश्चित ही यह पुतिन के लिए एक बड़ा संदेश भी है। संभव है कि परमाणु हमले की धमकी यूक्रेन को दबाव में लाने के लिए ही दी गई हो। हालांकि रूस यूक्रेन पर रासायनिक हथियारों के इस्तेमाल का आरोप लगा रहा है। लेकिन जो भी हो, परमाणु हमले की धमकी देकर रूस ने बता दिया है कि यूक्रेन को लेकर अब वह जो भी करेगा, अपनी शर्तों पर ही करेगा।
परमाणु हथियारों के इस्तेमाल की सनक का नतीजा दुनिया भुगत चुकी है। गौरतलब है कि दूसरे विश्वयुद्ध में अमेरिका ने जापान के हिरोशिमा और नागासाकी शहरों पर परमाणु बम गिरा कर दुनिया को इसके अंजाम के बारे में बता दिया था। उस तबाही की यादें आज भी रोंगटे खड़े कर देती हैं।
हालांकि, अभी रूस के हमले से सिर्फ यूक्रेन पस्त है, ऐसा नहीं है। वहीं, रूस-यूक्रेन की जंग का असर वैश्विक अर्थव्यवस्था पर साफ दिखने लगा है।
कोई नहीं जानता कि आने वाले दिनों में घटनाएं क्या मोड़ ले लें। संकट इसलिए भी गहराता जा रहा है कि जंग लड़ रहे दोनों देश कच्चे तेल, गैस और गेहूं के बड़े निर्यातक हैं। यूरोप सहित कई अन्य देश भी इनसे गैस और तेल खरीदते हैं। गेहूं और निकल, एल्युमीनियम जैसी धातुओं के दाम भी पिछले पांच दशक के रिकॉर्ड तोड़ चुके हैं।
रूस और यूक्रेन दुनिया का चौदह फीसद गेहूं पैदा करते हैं। ऐसे में महंगाई कहां जाएगी, कोई नहीं जानता। युद्ध के कारण वैश्विक अर्थव्यवस्था चरमराने को लेकर चिंता इसलिए भी बढ़ गई है कि ज्यादातर देश महामारी की मार से अभी तक उबरे भी नहीं थे कि दूसरा संकट सिर पर आ गया।
युद्ध और महामारी जैसी विपत्तियां मानव जीवन को कैसे तबाह कर देती हैं, यह अब छिपा नहीं रह गया है। महामारी की वजह से महंगाई और बेरोजगारी ने किसको नहीं रुलाया! अब फिर वैसे ही हालात बनते दिख रहे हैं। रोजाना नए रिकार्ड बनाता कच्चा तेल सबसे बड़ा संकट पैदा कर रहा है।
कच्चा तेल महंगा होते ही सरकारें पेट्रोल-डीजल के दाम बढ़ाने का कदम उठाती हैं और इसका सीधा हर तरह के कारोबार से लेकर आम जीवन पर पड़ता है। भारत दुनिया के कई देशों को दवाइयों से लेकर कपड़े, मशीनें, कलपुर्जे, इलेक्ट्रॉनिक सामान, चाय, कॉफी, वाहन आदि का निर्यात करता है।
साथ ही दालें, खाने के तेल, उद्योगों के लिए कच्चा माल आयात करता है। वैश्विक कारोबार में हर देश इसी तरह एक दूसरे के सहारे टिका हुआ है। ऐसे में महंगा कच्चा तेल नौवहन की लागत बढ़ाता है और फिर इसका असर निर्यात-आयात पर पड़ता दिखता है।
लागत बढ़ने से स्थानीय कारोबारी प्रभावित होते हैं और महंगाई बढ़ती है। रूस को वैश्विक भुगतान व्यवस्था से अलग-थलग कर देने के बाद कारोबारियों को पैसे फंसने का भी डर सता रहा है।