महाराष्ट्र में सियासी अस्थिरता के संकेत मिल रहे हैं। शिवसेना नेता एकनाथ शिंदे 15 से अधिक विधायकों को लेकर उड़ गए हैं। उन्होंने इतना बड़ा खेल कर दिया और महाराष्ट्र की महाअघाड़ी सरकार को भनक तक नहीं लगी। कुछ ऐसा ही मध्यप्रदेश में भी दो साल पहले हुआ था। बीजेपी ने ज्योतिरादित्य सिंधिया के साथ मिलकर कमलनाथ की सरकार को गिराने के लिए फूलप्रूफ तैयारी की थी। ऑपरेशन लोट्स को सफल बनाने के लिए एमपी में दो प्लान तैयार किए गए थे। प्लान ए को कांग्रेस ने कुछ घंटे में ही डिकोड कर लिया था और गुरुग्राम के होटलों में ठहरे विधायकों की वापसी शुरू करवा दी थी। प्लान बी के बारे में कांग्रेस को भनक तक नहीं लगी और सिंधिया खेमे के सभी विधायकों को लेकर बीजेपी बेंगलुरु उड़ गई।
कैसे बदल रहा समीकरण
विधानपरिषद चुनावों के बाद यह तो स्पष्ट हो गया है कि महाराष्ट्र में भाजपा को अब 134 विधायकों का समर्थन प्राप्त है। यानी बहुमत हासिल करने के लिए उसे अब 11 विधायक और चाहिए। उधर, शिवसेना के वरिष्ठ नेता एकनाथ शिंदे समेत शिवसेना के दो दर्जन विधायक उद्धव ठाकरे के संपर्क में नहीं हैं। माना जा रहा है ये विधायक भाजपा के संपर्क में हैं। इसके अलावा सूत्रों के मुताबिक, कांग्रेस और एनसीपी के भी कुछ विधायक भाजपा के पाले में जा सकते हैं। अगर ऐसा होता है तो महाराष्ट्र में उद्धव सरकार के लिए नया संकट खड़ा हो सकता है।
इसलिए गिर सकती है सरकार
288 सदस्यीय महाराष्ट्र विधानसभा में बहुमत के लिए 145 विधायक चाहिए। कुछ सीटें रिक्त हैं तो कुछ विधायक जेल में हैं, इसलिए प्रभावी संख्या 285 है। ऐसे में बहुमत के लिए 143 सदस्यों का समर्थन चाहिए। उद्धव ठाकरे सरकार के पास 153 विधायकों का समर्थन है। यदि शिवसेना में फूट पड़ती है तो कांग्रेस के भी कुछ विधायक टूट कर भाजपा का दामन थाम सकते हैं। भाजपा पहले से सबसे बड़ी पार्टी है। भाजपा के 106 विधायक हैं तो राजग के मिलाकर 113 विधायक हैं। इसलिए वह दावा पेश कर इनका समर्थन हासिल कर सकती है।
एमपी में 15 साल बाद दिसंबर 2018 में कांग्रेस की सरकार बनी थी। सरकार गठन के साथ ही प्रदेश में कमलनाथ की सरकार गुटबाजी में उलझ गई थी। प्रदेश में कांग्रेस में तीन गुट थे। हर गुट सरकार में दखल चाहती थी। कमलनाथ, दिग्विजय और ज्योतिरादित्य सिंधिया का अलग-अलग खेमा था। सिंधिया की बात जब आती थी तो कमलनाथ और दिग्विजय सिंह एक हो जाते थे। सिंधिया सरकार और संगठन में हिस्सेदारी को लेकर लगातार दबाव बना रहे थे लेकिन आलाकमान लगातार अनदेखी कर रही थी।
बीजेपी ने इसकी का फायदा उठाया। सिंधिया ने भी कई मौकों पर पार्टी लाइन से अलग जाकर इस बात के संकेत देने लगे थे कि वह बीजेपी के करीब जा रहे हैं। तीन मार्च 2020 को एमपी में तख्तापलट की शुरुआत हो गई।