(लेखक-विवेक कुमार पाठक)
समाचार पत्र एवं कुछ अन्य मीडिया संस्थानों से फिल्मी पत्रकारिता एवं लेखन में अपनी खास पहचान बनाने वाले वरिष्ठ पत्रकार जयप्रकाश चौकसे के निधन का दुखद समाचार मिला, कुछ रोज पहले ही उन्होंने कैंसर से उत्पन्न शारीरिक व्याधियों के कारण अपना अंतिम स्तंभ लिखकर लेखन से मजबूरी में विराम लिया था, वे भास्कर के लिए पिछले 26 सालों से रोजाना लिख रहे थे। ढाई दशक से अधिक की इस लंबी यात्रा के दौरान चौकसे जी ने क्या कुछ कब कब लिखा वह पूरा मुझ छात्र लेखक की किस्मत में नहीं रहा । जितना जो कुछ जब तक अनियमित पढ़ा सब ईश्वर के आशीर्वाद से। जो पढ़ा है उतना ही चौकसे जी को जान सका हूं सो उनके बारे में उतना ही लिख सकूंगा। सहमति असहमति हर लेखक की तह मेरा भी अधिकार रहेगा।
परदे के पीछे नियमित कॉलम के लिए चौकसे जी की खुले मन से प्रशंसा की जानी चाहिए इसमें कोई दो राय नहीं है। वे फिल्म और सिनेमा से जुड़े हुए कॉलम को हर रोज बार बार लगातार लिखते रहे हैं यह कोई छोटी बात नहीं है। निश्चित रुप से उनके कॉलम का एक बड़ा पाठक वर्ग रहा है जो उनके लेखन की शैली को पसंद करता रहा। चौकसे जी की लंबी पारी के लिए इन नियमित पाठकों को भी आज साधुवाद दिया जाना जरुरी है। इसे सरल भाषा में कहें तो जैसे एक भजन है कि राम से बड़ा राम का नाम वैसे ही लेखक के नाम से बड़ा पाठकों का पाठन योगदान है। ऐसा बंधा हुआ पाठक वर्ग हर लेखक की अभिलाषा रहती है। हमने देखा है कि हिन्दी के नामचीन ख्यात संपादक प्रभाष जोशी का नियमित कॉलम कागद कारे को जनसत्ता के पाठकों ने लगातार इंतजार करते हुए बार बार लगातार पढ़ा। इंदौर से निकले मूर्धन्य संपादक राजेन्द्र माथुर जी के लेखों को पढ़ने के लिए उनके प्रशंसक पाठक वर्ग में जीवन के अंतिम समय तक आतुरता रही। अपने प्रिय पत्रकार, लेखक का नियमित स्तंभ असल में पाठक से एक रिस्ता सा बना लेता है। क्या हम आपस की बात को भूल सकते हैं। राजकुमार केसवानी जी का यह साप्ताहिक स्तंभ भास्कर के रविवारीय का नगीना हुआ करता था। उनकी अपनी ही शैली रही है। फिल्म, कला, संगीत, गीत, नृत्य, गजल, कविता से लेकर कला के हर फलक पर उन्होंने खूब लिखा और बेहद पठनीय लिखा। उनके नियमित पाठक हर लेख में उनकी जय जय को कभी नहीं भूल पाएंगे।
जयप्रकाश चौकसे जी का दैनिक स्तंभ भी भास्कर के नियमित पाठकों के लिए एक जरुरी हिस्सा बन गया था। उनके लेख में सिनेमा और टीवी की बातें एक अलहदा अंदाज में कही जातीं थीं। वे फिल्मों के बीच में समसामायिक मुद्दों पर भी अपनी बात चतुरता से रखा करते आए हैं हालांकि ये बात भी साफ है कि उनकी अपनी एक खास राजनैतिक दृष्टि रही और अनेक बार राजनैतिक समीक्षा और आलोचना में पूर्वाग्रही भी रहे । अपने लेखन के बीच बीच में उन्होंने खास राजनेताओं की बहुत तल्ख शब्दों के साथ न केवल बुराई की है बल्कि अनेक बार उपहास भी किया है। बिना नाम लिए उन्होंने ऐसे व्यंग्य से भरे नुकीले बाण अननिगत बार चलाए। ऐसी आलोचनाओं का एक पत्रकार की कलम से हर पाठक वर्ग स्वागत करता रहा है बशर्ते वे एकतरफा और समानता के साथ की गई हों मगर चौकसेजी अनेक बार लेखन में असंतुलन के भाव में दिखे हैं। खैर उनके सिनेमा पर ही केन्द्रित लेखन की भी बात हो जाए।
निसंदेह उनके पास जानकारियों और मुंबई की खबरों का बड़ा पिटारा रहता था और वे समय समय पर सिने जगत की विभिन्न घटनाओं पर उनके जरिए टिप्पणियां करते थे। चूंकि विज्ञापन एजेंसियां अखबारों में निरंतर पीआर खबरें जारी करती रहती हैं और अधिकांश अखबारों के फिल्मी पन्ने उन्हीं चटपटी खबरें से अटे रहते हैं ऐसे में सिनेमा के लिए उनसे अलग लिखना भी एक बड़ी चुनौती है। जयप्रकाश चौकसे ने इसके समाधान के लिए अपने ही तरीके का खास लेखन किया। उनके स्तंभ में आप एक साथ कई विषयों पर पढ़ सकते थे। शायद ही कभी हो कि उन्होंने परदे के पीछे में असल दुनिया के आगे के बारें में थोड़ा बहुत कुछ लिखा न हो। वे फिल्मी लेखन में देश दुनिया में घट रहीं घटनाओं पर गंभीर टिप्पणियां किया करते थे। बीच बीच में दार्शनिक भाव में दो चार लाइन लिखकर वे तो आगे बढ़ जाते थे मगर पाठक वर्ग सोचने के लिए कुछ ठिठक जाता था। पाठकों का ये ठिठकना भी चौकसे की उपलब्धि कही जाएगी क्योंकि वे लेख के जरिए लोगों को सोचने व तर्क वितर्क का मंच उपलब्ध करा देते थे।
बीच बीच में सिनेमा की तमाम रोचक और संग्रहणीय जानकारियां फिल्म जगत से उनके निरंतर संबंधों का परिणाम रहीं। उन्होंने फिल्मों के लिए लेखन करते हुए अपने निजी संबंधों को भी पानी देने में संकोच नहीं किया। कपूर परिवार की तारीफ वे बहुत खुलकर और बहुत बार किया करते थे। कपूरों से उनका प्रेम इस तरह रहा कि उन्होंने अपने करियर मेंं शुरुआत सें ही डगमगा रहे ऋषि कपूर के अभिनेता बेटे रणवीर कपूर को बार बार हर बार बहुत ज्यादा प्रतिभाशाली बताया मगर खुलकर कहा जाए तो ये ये पाठक हैं सब जानते हैं। खैर इन अतीरेकों को एकतरफ रख दें तो चौकसे जी का लेखन सफल रहा , लोकप्रिय रहा । पक्ष विपक्ष, भेद मतभेद हमेशा रहे हैं और आगे भी रहेंगे। लेखन की दृष्टि को संतुलित रखना संभवत चांद में दाग न होने देने जैसी चीज बन जाती है अनेक बार। जयप्रकाश जी ने भी अपने बस तक अपने लेखन को अपने मन अनुसार धवल रखा, . उनके अंतिम लेख को पढ़कर जहां उनकी शारीरिक व्याधियों को जानकर दुख हुआ वही जीवट ता भरे शीर्षक को देखकर एक आशा भी जगी कि उनका यह लेख विदा ही है अलविदा नहीं है एवं विचार की बिजली उनके मस्तिष्क में जरूर चमकेगी मगर यह हो नहीं सका एवं एक विशाल रचना संसार कोरक्कर इस दुनिया से हमेशा के लिए अलविदा हो गए, . हम सब पर्दे की पीछे की कहानियों के लिए हमेशा ही चोकसे जी को बारंबार स्मृतियों में याद करते रहेंगे, उनका लेखन उनकी विशिष्ट छवि बनकर पाठकों के मन में हमेशा अंकित बना रहेगा……
परदे के पीछे नियमित कॉलम के लिए चौकसे जी की खुले मन से प्रशंसा की जानी चाहिए इसमें कोई दो राय नहीं है। वे फिल्म और सिनेमा से जुड़े हुए कॉलम को हर रोज बार बार लगातार लिखते रहे हैं यह कोई छोटी बात नहीं है। निश्चित रुप से उनके कॉलम का एक बड़ा पाठक वर्ग रहा है जो उनके लेखन की शैली को पसंद करता रहा। चौकसे जी की लंबी पारी के लिए इन नियमित पाठकों को भी आज साधुवाद दिया जाना जरुरी है। इसे सरल भाषा में कहें तो जैसे एक भजन है कि राम से बड़ा राम का नाम वैसे ही लेखक के नाम से बड़ा पाठकों का पाठन योगदान है। ऐसा बंधा हुआ पाठक वर्ग हर लेखक की अभिलाषा रहती है। हमने देखा है कि हिन्दी के नामचीन ख्यात संपादक प्रभाष जोशी का नियमित कॉलम कागद कारे को जनसत्ता के पाठकों ने लगातार इंतजार करते हुए बार बार लगातार पढ़ा। इंदौर से निकले मूर्धन्य संपादक राजेन्द्र माथुर जी के लेखों को पढ़ने के लिए उनके प्रशंसक पाठक वर्ग में जीवन के अंतिम समय तक आतुरता रही। अपने प्रिय पत्रकार, लेखक का नियमित स्तंभ असल में पाठक से एक रिस्ता सा बना लेता है। क्या हम आपस की बात को भूल सकते हैं। राजकुमार केसवानी जी का यह साप्ताहिक स्तंभ भास्कर के रविवारीय का नगीना हुआ करता था। उनकी अपनी ही शैली रही है। फिल्म, कला, संगीत, गीत, नृत्य, गजल, कविता से लेकर कला के हर फलक पर उन्होंने खूब लिखा और बेहद पठनीय लिखा। उनके नियमित पाठक हर लेख में उनकी जय जय को कभी नहीं भूल पाएंगे।
जयप्रकाश चौकसे जी का दैनिक स्तंभ भी भास्कर के नियमित पाठकों के लिए एक जरुरी हिस्सा बन गया था। उनके लेख में सिनेमा और टीवी की बातें एक अलहदा अंदाज में कही जातीं थीं। वे फिल्मों के बीच में समसामायिक मुद्दों पर भी अपनी बात चतुरता से रखा करते आए हैं हालांकि ये बात भी साफ है कि उनकी अपनी एक खास राजनैतिक दृष्टि रही और अनेक बार राजनैतिक समीक्षा और आलोचना में पूर्वाग्रही भी रहे । अपने लेखन के बीच बीच में उन्होंने खास राजनेताओं की बहुत तल्ख शब्दों के साथ न केवल बुराई की है बल्कि अनेक बार उपहास भी किया है। बिना नाम लिए उन्होंने ऐसे व्यंग्य से भरे नुकीले बाण अननिगत बार चलाए। ऐसी आलोचनाओं का एक पत्रकार की कलम से हर पाठक वर्ग स्वागत करता रहा है बशर्ते वे एकतरफा और समानता के साथ की गई हों मगर चौकसेजी अनेक बार लेखन में असंतुलन के भाव में दिखे हैं। खैर उनके सिनेमा पर ही केन्द्रित लेखन की भी बात हो जाए।
निसंदेह उनके पास जानकारियों और मुंबई की खबरों का बड़ा पिटारा रहता था और वे समय समय पर सिने जगत की विभिन्न घटनाओं पर उनके जरिए टिप्पणियां करते थे। चूंकि विज्ञापन एजेंसियां अखबारों में निरंतर पीआर खबरें जारी करती रहती हैं और अधिकांश अखबारों के फिल्मी पन्ने उन्हीं चटपटी खबरें से अटे रहते हैं ऐसे में सिनेमा के लिए उनसे अलग लिखना भी एक बड़ी चुनौती है। जयप्रकाश चौकसे ने इसके समाधान के लिए अपने ही तरीके का खास लेखन किया। उनके स्तंभ में आप एक साथ कई विषयों पर पढ़ सकते थे। शायद ही कभी हो कि उन्होंने परदे के पीछे में असल दुनिया के आगे के बारें में थोड़ा बहुत कुछ लिखा न हो। वे फिल्मी लेखन में देश दुनिया में घट रहीं घटनाओं पर गंभीर टिप्पणियां किया करते थे। बीच बीच में दार्शनिक भाव में दो चार लाइन लिखकर वे तो आगे बढ़ जाते थे मगर पाठक वर्ग सोचने के लिए कुछ ठिठक जाता था। पाठकों का ये ठिठकना भी चौकसे की उपलब्धि कही जाएगी क्योंकि वे लेख के जरिए लोगों को सोचने व तर्क वितर्क का मंच उपलब्ध करा देते थे।
बीच बीच में सिनेमा की तमाम रोचक और संग्रहणीय जानकारियां फिल्म जगत से उनके निरंतर संबंधों का परिणाम रहीं। उन्होंने फिल्मों के लिए लेखन करते हुए अपने निजी संबंधों को भी पानी देने में संकोच नहीं किया। कपूर परिवार की तारीफ वे बहुत खुलकर और बहुत बार किया करते थे। कपूरों से उनका प्रेम इस तरह रहा कि उन्होंने अपने करियर मेंं शुरुआत सें ही डगमगा रहे ऋषि कपूर के अभिनेता बेटे रणवीर कपूर को बार बार हर बार बहुत ज्यादा प्रतिभाशाली बताया मगर खुलकर कहा जाए तो ये ये पाठक हैं सब जानते हैं। खैर इन अतीरेकों को एकतरफ रख दें तो चौकसे जी का लेखन सफल रहा , लोकप्रिय रहा । पक्ष विपक्ष, भेद मतभेद हमेशा रहे हैं और आगे भी रहेंगे। लेखन की दृष्टि को संतुलित रखना संभवत चांद में दाग न होने देने जैसी चीज बन जाती है अनेक बार। जयप्रकाश जी ने भी अपने बस तक अपने लेखन को अपने मन अनुसार धवल रखा, . उनके अंतिम लेख को पढ़कर जहां उनकी शारीरिक व्याधियों को जानकर दुख हुआ वही जीवट ता भरे शीर्षक को देखकर एक आशा भी जगी कि उनका यह लेख विदा ही है अलविदा नहीं है एवं विचार की बिजली उनके मस्तिष्क में जरूर चमकेगी मगर यह हो नहीं सका एवं एक विशाल रचना संसार कोरक्कर इस दुनिया से हमेशा के लिए अलविदा हो गए, . हम सब पर्दे की पीछे की कहानियों के लिए हमेशा ही चोकसे जी को बारंबार स्मृतियों में याद करते रहेंगे, उनका लेखन उनकी विशिष्ट छवि बनकर पाठकों के मन में हमेशा अंकित बना रहेगा……