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(विचार मंथन) अमेरिका-नेपाल की दाल 

 

लेखक-सिद्धार्थ शंकर

अमेरिका के एमसीसी प्रोग्राम के बाद अब नेपाल में एक और अमेरिकी प्रोग्राम को लेकर बहस तेज हो गई है। इस प्रोग्राम का नाम स्टेट पार्टनरशिप प्रोग्राम है और यह नेपाली सेना तथा अमेरिका के नेशनल गार्ड के बीच होना है। अमेरिका इस पर साइन करने के लिए नेपाल पर दबाव डाल रहा है। इससे नेपाल में एक नई बहस छिड़ गई है और राजनीतिक दल तथा बौद्धिक वर्ग पूरी तरह से बंट गया है। यह पूरा मुद्दा तब चर्चा में आया है जब नेपाल के प्रधानमंत्री शेर बहादुर देउबा और नेपाली सेना प्रमुख अमेरिका की यात्रा पर जाने वाले हैं। नेपाली सेना प्रमुख जनरल प्रभु राम शर्मा अमेरिकी रक्षा मंत्रालय के निमंत्रण पर 27 से 1 जुलाई तक के लिए अमेरिका की यात्रा पर जा रहे हैं। वहीं प्रधानमंत्री देउबा मध्य जुलाई में वॉशिंगटन जाएंगे। नेपाल के एसपीपी प्रोग्राम में शामिल होने के लिए ताजा दबाव पिछले सप्ताह अमेरिकी सेना के प्रशांत बेड़े के कमांडिंग जनरल चार्ल्स फ्लीन की काठमांडू यात्रा के दौरान आया। पीएम देउबा के साथ बैठक के दौरान अमेरिकी जनरल ने यह मुद्दा उठाया और साइन करने के लिए कहा। नेपाली मीडिया ने अमेरिकी प्रस्ताव के मसौदा कॉपी को प्रकाशित कर दिया है जिससे दोनों देशों की सेनाओं के बीच सहयोग पर बहस छिड़ गई है। एमसीसी का विरोध कर रहे चीन समर्थक लोगों का कहना है कि यह अमेरिका की हिंद-प्रशांत रणनीति का हिस्सा है और इसी वजह से इसमें एक सुरक्षा का पहलू भी जुड़ा है। उधर, अमेरिका ने इसका खंडन किया है और कहा है कि एमसीसी पूरी तरह से विकास से जुड़ा हुआ है। अब नेपाल में कई लोग एसपीपी पर हस्ताक्षर करने के औचित्य पर सवाल उठा रहे हैं। उनका कहना है कि इससे कहीं नेपाली सेना एक सैन्य गठबंधन का हिस्सा न बन जाए। इस पूरे मामले को लेकर भारत भी असहज है। उसके असहज होने के तीन कारण हैं। एक तो जो बाइडेन के राष्ट्रपति चुने जाने से पहले भारत ने डोनाल्ड ट्रम्प की जिस तरह प्रचार के जरिए सहायता की, उसने बाइडेन को जीत के बाद भारत का स्वाभाविक आलोचक बना दिया। इससे पहले भारत कभी भी अमेरिकी चुनाव में एक पार्टी नहीं बना था। इस मामले में विदेश नीति से विचलन उसे महंगा पड़ा है। दूसरा कारण राष्ट्रपति जो बाइडेन और उपराष्ट्रपति कमला हैरिस का भारत की कश्मीर नीति के विरोध में होना है। तीसरा कारण रूस-यूक्रेन युद्ध में भारत का तटस्थ रहते हुए उसके विरुद्ध निंदा से अपने को अलग करना था। अमेरिका ने बड़े जोर लगाए, उसके राजनयिक भारत में आकर धमका गए पर भारत ने वही किया, जो उसके हित में था। इस वजह से भी अमेरिका ने दूरी तो बनाई ही, नेपाल से सीधे पींगें बढ़ानी शुरू कर दीं। एक तीर से दो निशाने लगाते हुए वह चीन और भारत दोनों पर निगरानी का संदेश दे रहा है। बीस साल बाद नेपाल का कोई प्रधानमंत्री अमेरिका जा रहा है। प्रधानमंत्री शेर बहादुर देउबा जुलाई में वाशिंगटन यात्रा के दौरान राजनीतिक और सैनिक समझौते करेंगे। खास बात है कि यात्रा के बारे में दोनों पक्ष चुप हैं। कुछ समय पहले हिंद प्रशांत क्षेत्र के 36 देशों में अमेरिकी कार्रवाई के मुखिया जॉन अक्विलिनो भी काठमांडू जा चुके हैं उसके बाद अमेरिकी अवर सचिव उजरा जेया और तीन अन्य अफसर नेपाल के फौजी अधिकारियों से मिले थे। जाहिर है कि अमेरिकी रुख से भारत और चीन दोनों ही सहज नहीं हैं। अमेरिका ने दशकों तक भारत और रूस पर ऐसा ही दबाव बनाने के लिए पाकिस्तान के साथ सैनिक संधियां की थीं पर आज कंगाल पाकिस्तान अमेरिका से कुछ हासिल करने की हालत में नहीं है। इमरान खान आरोप लगा रहे हैं कि उनकी सरकार गिराने के पीछे अमेरिकी साजिश थी। ऐसे में अमेरिका फिलहाल पाकिस्तान से रिश्तों में ठंडापन बनाकर रखेगा।
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