Press "Enter" to skip to content

ठाकरे तो एक ही था, बाकी सब ठीकरे 

लेखक-अनिल बिहारी श्रीवास्तव

महाराष्ट्र विधानसभा अध्यक्ष पद पर भारतीय जनता पार्टी के राहुल नारवेकर का रविवार को चुनाव और दूसरे ही दिन एकनाथ शिंदे सरकार का पूरी दमदारी से विश्वास मत हासिल कर लेना दो बड़ी घटनाएं हैं।
2019 में उद्धव ठाकरे के विश्वासघात से व्यथित देवेंद्र फडणवीस की वह भविष्यवाणी सच हुई है जिसमें उन्होंने कहा था कि ‘हम लौट कर आएंगे।’ राहुल नारवेकर 107 के विरूद्ध 164 मतों से विधानसभा अध्यक्ष चुने गए हैं। सोमवार को शिंदे सरकार ने 99 के विरूद्ध 164 मतों से विश्वास मत जीता। राज्य में जिस तरह सत्ता परिवर्तन हुआ वह साबित करता है कि सही या गलत फैसले का जीवन पर किस तरह  प्रभाव पड़ता है।
बात उद्धव ठाकरे की करें। गलत फैसलों, राजनीतिक और प्रशासनिक अकुशलता ने उन्हें कहां से कहां पहुंचा दिया। सत्ता गई, साख की फजीहत हुई और अब शिवसेना तक हाथ से निकल जाने जैसे हालात बन रहे हैं। दूसरी ओर नए मुख्यमंत्री एकनाथ शिंदे हैं। कभी आटो रिक्शा चलाते थे।
 बाल ठाकरे से प्रभावित थे। शिवसेना के मैदानी कार्यकर्ता बने। जमीन से जुड़ाव, समय के साथ आई राजनीतिक परिपक्वता और सही फैसले लेने की क्षमता के बूत मुख्यमंत्री बन गए। शिंदे स्वीकार करते हैं कि ‘मुख्यमंत्री बनने की कल्पना उन्होंने कभी की ही नहीं थी।’ वह पूरी विनम्रता और मुक्तकंठ से देवेंद्र फडणवीस की प्रशंसा करते हैं।
महाराष्ट्र में शिवसेना, राकांपा और कांग्रेस की महाअघाड़ी सरकार ढहने के बाद शरद पवार की खीझ उनके ताजा बयान से सामने आ गई। पवार ने भविष्यवाणी की है कि भाजपा, शिवसेना के शिंदे गुट और कुछ निर्दलियों के समर्थन से बनी शिंदे सरकार 6 माह में गिर जाएगी।
शायद ही कोई खरा राजनीतिक विश्लेषक पवार से सहमत होगा। फिलहाल ऐसा कुछ होने के दूर-दूर तक आसार नहीं हैं। संभावना इस बात की है कि शिंदे गुट को ही असली शिवसेना मान लिया जाए। इस समय उद्धव के समक्ष चुनौती बचे-खुचे शिवसैनकों को शिंदे के पाले में जाने से रोकने की है।
अपने संदर्भ संकलन के पन्ने पलटते समय 2019 की एक टीवी बहस पर नजर टिक गई।
चैनल का नाम तो याद नहीं परंतु बहस में भाग ले रहे एक राजनीतिक विश्लेषक की टिप्पणी ने अवश्य ध्यान खींचा। तब, महाराष्ट्र विधानसभा के चुनावों के परिणाम आने के बाद मुृख्यमंत्री पद के लिए उद्धव ठाकरे का मचलना, फिर पुराने सहयोगी भाजपा से नाता तोड़ लेना, उसके बाद कांग्रेस और राकांपा की गोद में उनके जा बैठने पर विश्लेषक ने कहा था, ‘बिना पद के इज्जत कमाना बाल ठाकरे से सीखें और पद के लिए इज्जत गंवाना उद्धव ठाकरे से।’
वह आगे बोले, ‘ठाकरे तो एक ही था, अब तो बस ठीकरे हैं।’ कितना सटीक विश्लेषण था। दो साधारण वाक्यों में कितना असाधारण विश्लेषण था। राजनीति और प्रशासन में अनुभवहीनता और चाटुकार सलाहकारों के चलते उद्धव ठाकरे का इज्जत और लोकप्रियता का ग्राफ आज गोता लगा रहा है।
क्या मातोश्री की शान और प्रतिष्ठा पर पर हुआ गहरा आघात छिपा रह पा रहा है? वहां सन्नाटा पसरा है। मातोश्री के आसपास गहरी शून्यता वहां के पेड़-पौधे भी कैसे सहन कर पा रहे होंगे? कभी महाराष्ट्र की राजनीति में सबसे ताकतवर माने जाते रहे ठाकरे परिवार ने ऐसे दिन देखने की कल्पना नहीं की होगी।
सदमे में कांग्रेस और राष्ठ्रवादी कांग्रेस पार्टी(राकांपा) भी हैं। दोनों ने सत्ता सुख खोया है। एक झटके में रुतबा खत्म हो गया। राजनीतिक गलियारों में चर्चा है कि कांग्रेस किसी भी दिन महाअघाड़ी से अलग होने की घोषणा कर सकती है।
वैसे भी शिवसेना के साथ बेमेल याराना से महाराष्ट्र के छोटे-बड़े कांग्रेसी काफी असहज महसूस कर रहे थे।  एक पखवाड़े तक महाराष्ट्र में चली राजनीतिक उथल-पुथल शांत हो चुकी है। विचारणीय प्रश्र यह है कि महाराष्ट्र के घटनाक्रम में नफा-नुकसान का गणित क्या कह रहा है? निचोड़ यही है कि भाजपा एक बार फिर सबसे अधिक ताकतवर होकर उभरी है। कांग्रेस और राकांपा दोनों के सपने टूट चुके हैं। शिवसेना विभाजन की कगार पर है।
ठाकरे परिवार का राजनीतिक प्रभाव क्षींण हुआ है। सबसे अधिक घाटे में उद्धव ठाकरे दिखाई दे रहे हैं। राजनीतिक और प्रशासनिक दृष्टि से वह बहुत कमजोर साबित हुए हैं। उनकी वह ठसक अब नहीं दिखेगी जो ढाई तीन साल पहले तक दिखाई देती रही है। बाला साहब के समय बड़े-बड़े राजनीतिक और गैर-राजनीतिक दिग्गज मातोश्री में हाजिरी लगाने या सलाम ठोकने जाते थे। वही प्रभाव काफी हद तक 2019 तक दिखाई दे जाता था।
उद्धव और पुत्र आदित्य ठाकरे के सत्ता की राजनीति में उतरने के बाद शनै-शनै इसमें कमी आती दिखाई देने लगी थी। अब सांप सूंघ गया जैसी स्थिति है। पिता-पुत्र के सत्ता-मोह ने ठाकरे परिवार के दबदबे और प्रतिष्ठा को खासी चोट पहुंचाई है। इसके लिए कुछ लोग संजय राउत को जिम्मेदार मानते हैं।
आलोचकों की बात में दम है। वो कहते हैं, ‘संजय राउत के बड़बोलेपन और उनके द्वारा पिता-पुत्र को दी जाती रही गलत सलाह ने सब मटियामेट कर दिया। राउत की सलाहों के कारण हालात बिगड़े और शिंदे और उनके समर्थक विधायक विद्रोह पर विवश हुए।’ ऐसा आरोप लगाया जा रहा है कि उद्धव को सत्ता का चस्का राउत की मेहरबानी से लगा। राउत ने ही राकांपा और कांग्रेस के गठबंधन के लिए उद्धव को उकसाया था।
देवेंद्र फडणवीस द्वारा उपमुख्यमंत्री पद स्वीकार किए जाने पर कुछ लोगों को आश्चर्य हुआ है। माना जा रहा था कि भाजपा और शिंदे गुट की सरकार का नेतृत्व फडणवीस करेंगे और शिंदे उप मुख्यमंत्री होंगे।
लेकिन, भाजपा केंद्रीय नेतृत्व के फैसले से राजनीति की नब्ज टटोलने में महारत का दावा करने वाले भी चौंक पड़े। शिंदे को मुख्यमंत्री बना कर भाजपा ने खेल ही पलट दिया। पवार, उद्धव ठाकरे और कांग्रेस भौंचक हैं। भाजपा की रणनीति इतनी गोपनीय थी कि शायद फडणवीस तक अनभिज्ञ थे।
शिंदे को मुख्यमंत्री बना कर सरकार की स्थिरता सुनिश्चित कर ली गई है। यह फैसला अविभाजित शिवसेना में उद्धव का प्रभाव खत्म करने में मददगार साबित होगा।
एक खास बात यह है कि शिंदे की अगुआई वाली सरकार में उपमुख्यमंत्री बनना स्वीकार करने से पार्टी मे फडणवीस की साख और मजबूत हुई है। स्वयं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृहमंत्री अमित शाह ने फडणवीस को हर कार्यकर्ता के लिए प्रेरणा का स्रोत बताया है। फडणवीस की उदारता पर एकनाथ शिंदे ने तो यह तक कह दिया कि उनके जैसा व्यक्ति मिलना मुश्किल है। निश्चित रूप से भाजपा में फडणवीस का कद बढ़ा है। यहां नीतेश राणे की टिप्पणी का उल्लेख उचित लग रहा है।
उन्होंने कहा है, ‘फडणवीस का आचरण प्रेरक और अनुकरणीय है। आरएसएस के स्वयंसेवक में किस प्रकार मूल्यों का समावेश होता है इस का प्रमाण फडणवीस से मिल रहा है। जातिवाद और वंशवाद की राजनीति से टिके राजनीतिक दलों में ऐसे उदाहरण मिलना लगभग असंभव सा है।’ फडणवीस राज्य में सबसे ताकतवर, दूरदर्शी, धीर-गंभीर और पार्टी के लिए पूरी तरह समर्पित नेता के रूप में सामने आए हैं।
कभी किसी ने कहा था कि मोदी, शाह, पवार और सोनिया के सामने उद्धव ठाकरे जीरो हैं। स्वयं उद्धव ठाकरे ने इस कथन की पुष्टि करवा दी। वह ना तो सरकार चला पाए और ना ही अपने पिता की कड़ी मेहनत और समर्पण से खड़ी की गई शिवसेना को संभाल सके।
शिंदे महाराष्ट्र की राजनीति में पहली पंक्ति के ताकतवर नेता  के रूप में उभरे हैं। माना जा रहा है कि शिंदे को मुख्यमंत्री बनाये जाने से उनकी अगुआई वाले धड़े को वास्तविक शिवसेना सिद्ध करने में आसानी रहेगी।
भाजपा के साथ शिंदे गुट का गठबंधन समान विचार वालों की एकजुटता के रूप में लिया जाना चाहिए। छह माह में सरकार गिरने की पवार की भविष्यवाणी को असत्य साबित करने में शिंदे और भाजपा दोनों ही भला कोई कसर छोड़ेंगे?
Spread the love
More from Editorial NewsMore posts in Editorial News »